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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - भाग ३
पार्वतिका ( पव्वइया) नाम की वह नगरी है, जहां सिंहासनारूढ़ रहते हुए तोरमाण ने पृथ्वी का उपभोग किया। उस तोरमाण के गुरु गुप्तवंशावतंस प्राचार्य हरिगुप्त (अपर नाम हारिल तथा हरिभद्र ) थे । उन दिनों प्राचार्य हरिगुप्त ने उस पव्वइया नगरी में कुछ समय के लिये निवास किया था ।
" तस्स गुरु हरिउत्तो, आयरिश्र प्रासि गुत्तवंसाओ ।" इस गाथार्द्ध से यह प्रमाणित होता है कि आचार्य हारिल ( आचार्य हरिगुप्त अपर नाम हरिभद्र) का जन्म यशस्वी गुप्त राजवंश में हुआ था । श्राचार्य हारिल के, गुप्त राजवंश में उत्पन्न होने विषयक उद्योतन सूरि के इस उल्लेख की पुष्टि में विद्वानों द्वारा अहिच्छत्रा से मिले एक ताम्र के सिक्के को भी अनुमानित प्रमाण के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। श्री सर कनिंघम को अहिच्छत्रा' में मिले एक ताम्र के सिक्के से अनेक विद्वानों द्वारा यह अनुमान किया जाता है कि युगप्रधानाचार्य हारिल (हरिगुप्तअपर नाम हरिभद्र ) श्रमण धर्म में दीक्षित होने से पूर्व संभवतः अहिच्छत्रा के शासक गुप्तवंश के महाराजा थे। ई० सन् १८८४ में सर कनिंघम को जो ताम्र का सिक्का मिला है, उस पर एक ओर "श्री महाराज हरिगुप्तस्य " यह वाक्य उल्लि - खित है । उसी सिक्के के दूसरी ओर पद्मपुष्प के पिधान ( ढक्कन ) वाले कुम्भ --- कलश की आकृति अंकित है । पद्म पुष्प सहित कुम्भ-कलश वस्तुतः परम्परा मे प्रेति प्राचीन काल से मान्य अष्ट महामंगलों में से एक मंगल है | तीर्थङ्करों की माताएँ तीर्थङ्करों के गर्भावतरण काल में जो चौदह महामंगलकारी स्वप्न देखती हैं, उनमें भी नौवां स्वप्न पद्मपिधान संयुत कंचन - कलश दर्शन का है ।
प्राचीन सिक्कों के सूक्ष्म परीक्षण से विदित होता है कि जो राजा जिस धर्म का अनुयायी होता, वह अपने सिक्कों के दूसरी ओर अपनी धार्मिक मान्यता के प्रतीक स्वरूप कोई चित्र अंकित करवाता था । पूर्व में रही इसी प्रवृत्ति के परिणामस्वरूप प्राचीन काल के सिक्कों पर भिन्न-भिन्न प्रकार के चिह्नांकित चित्र उपलब्ध होते हैं । अधिकांशत: वैदिक धर्मानुयायी राजाओं के सिक्कों पर यज्ञीय अश्व की
" अहिच्छत्रा नगरी रामनगर ( जिला बरेली ) के दक्षिण पार्श्व में थी । आज भी वहाँ चार माइल के घेराव में टीला विद्यमान है ।
२ निम प्राचियोलोजिकल सर्वे श्राफ इण्डिया, वोल्यूम १ ।
3 हेमन्त - बाल - दिरणयर, समप्पभं सुरभिवारिपडिपुण्णं ।
दिव्वं कंचरण - कलसं, पउमपिहाणं तु पेच्छन्ति ॥ ११० ॥
अर्थात् -- हेमन्त ऋतु के उदीयमान सूर्य के समान नयनाभिराम प्रभा वाले, सुगंधित जल से परिपूर्ण, पद्मपुष्प के विधान से पिहित दिव्य कञ्चन- कलश को उन जिन-जननियों ने 8वें स्वप्न में देखा ।
- तित्थोगाली पइण्णय
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