________________
वीर सम्वत् १००० से उत्तरवर्ती प्राचार्य ]
[ ३८७
के आक्रमणों एवं अमानुषिक अत्याचारों से भारत के अनेक भू-भागों की प्रजा संत्रस्त थी एवं राजनैतिक दृष्टि से हम विशृंखलित थे ऐसे संक्रान्तिकाल में इन हारिल्लसूरि ने एक सच्चे युगपुरुष के अनुरूप अविचल धैर्य, अडिग साहस एवं अनूठी सूझबूझ के साथ उस आततायी का अपने अहिंसात्मक ढंग से प्रतिकार किया। उसे मानवता का पाठ पढ़ाकर पीड़ित की जा रही प्रजा के त्राण के लिये एक सुदढ़ प्राचीर का काम किया। उस युग के उस अद्वितीय अध्यात्मयोगी प्राचार्य हारिल के उपदेशों एवं अलौकिक प्रतिभा से प्रभावित हो हूणराज तोरमारण उन्हें अपना गुरु बनाकर सदा के लिये उनका उपासक बन गया। तोरमारण जैसे भयानक आततायी को मानवता का पाठ पढ़ाने के कारण युगप्रधानाचार्य हारिल की कीर्ति दूर-दूर तक फैली।
हुणराज तोरमारण ने २६वें युगप्रधानाचार्य हारिल को गुरु माना, यह एक ऐतिहासिक तथ्य है । इस ऐतिहासिक तथ्य को, इन्हीं हारिलसूरि की शिष्य परम्परा की छठी पीढ़ी में हुए आचार्य दाक्षिण्य चिह्न-उद्योतनसूरि ने अपनी शक सं० ७०० की कृति-"कुवलयमाला" की प्रशस्ति में निम्न रूप में उल्लिखित किया है :
अस्थि पहई-पसिद्धा, दोण्णिपहा दोण्णि चेय देसत्ति । तत्थत्थि पहं णामेण, उत्तरा बुहजणाइण्णं ॥ सुंई दिय चारुसोहा, वियसिय कमलाणणा विमलदेहा । तत्थरिथ जलहि दइया, सरिया अह चंदभायत्ति ॥ तीरम्मि तीय पयडा, पव्वइया णाम रयण सोहिल्ला । जत्थ ठिएण भुत्ता, पुहई सिरि तोरराएण ।। तस्स गुरु हरिउत्तो, आयरियो आसि गुत्त वंसानो। तीए गयरीए दिण्णो, जेण णिवेसो तहिं काले ।'
अर्थात्-पृथ्वीमण्डल में प्रसिद्ध द्रोणपथ अथवा द्रोण नामक एक देश है । वहां उत्तरापथ नामक एक पथ है, जो विद्वानों से भरा हुआ है-व्याप्त है। उस उत्तरापथ में समुद्रप्रिया चन्द्रभागा नाम की एक नदी है, जो पवित्र, कान्तिमान, सुमनोहर शोभाशालिनी, खिले हए कमल के समान सुमुखी और निर्मल देहयष्टि वाली है। उस चन्द्रभागा नदी के तट पर रत्नजड़ित आकार प्राकारादि से सुशोभित
१. कुवलयमाला, प्रशस्ति, पृष्ठ २८२
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org