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जैन धर्म की आध्यात्मिक आराधना-उपासना विषयक मूल मान्यताओं पर प्रकाश डालते हुए अन्तिम पूर्वधर वाचनाचार्य आर्य देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण से उत्तरवर्ती इतिहास को अन्धकार से प्रकाश में लाने का प्रयास किया गया है, उन तथ्यों में से उदाहरणार्थ कतिपय महत्वपूर्ण तथ्य संक्षेप में ऊपर बताये गये हैं।
पूर्वाग्रहों से पूर्णतः विनिर्मुक्त हो क्षीर-नीर विवेकपूर्ण जिज्ञासु एवं तथ्यान्चेषक दृष्टि से यदि विज्ञ पाठकवृन्द प्रस्तुत ग्रन्थ को अथ से इति तक पढ़ेंगे तो हमारा विश्वास है कि आज तक जिस अवधि के इतिहास को तिमिराच्छन्न समझा जाता था, वह अलौकिक आभापुंज के रूप में उन्हें प्रतीत होगा। वीर निर्वाण की ग्यारहवीं शताब्दी के प्रारम्भिक चरण से लगभग २१वीं शताब्दी तक जैन संघ पर छाई रही चैत्यवासी आदि अनेक द्रव्य-परम्पराओं के वर्चस्व के परिणामस्वरूप उन द्रव्य परम्पराओं द्वारा रूढ़ कर दी गई बाह्याडम्बरपूर्ण मान्यताओं के कुहरे में जैनधर्म का जो मूल विशुद्ध स्वरूप धूमिल हो चुका था, उसे धर्मोद्धारक लोकाशाह आदि ने जिस तरह उजागर किया, उसका विवरण पूर्णिमा के पूर्णचन्द्र की भांति जैन जगत के जन-जन के अन्तर्मन को आलोकित कर देगा।)
१/(जिनके मन पूर्वाग्रहों से पराभूत हैं, वे भी इन सब तथ्यों के अध्ययन-चिन्तन-मनन के अनन्तर अन्तर्मन में इतना तो अवश्य अनुभव करेंगे कि वस्तुतः मूलागमों, से सयौक्तिक ठोस आधारों पर लिखा गया यह इतिहास सभी प्रकार की प्रान्तियों को ध्वस्त कर देने वाला सिद्ध होगा)
केवल तथ्य को प्रकाश में लाने के उद्देश्य से ही एक अवधि के तिमिराच्छन्न जैन इतिहास को अन्धेरे से उजाले में लाने का यह प्रयास किया गया है। वस्तुतः यह प्रयास जिनवाणी के माध्यम से जिनवाणी को ही प्रकाश में लाने का प्रयास मात्र है। इन आगमिक एवं पुरातन प्रामाणिक तथ्यों को कोई माने अथवा न माने-इसमें हमारा किसी से कोई आग्रह नहीं। संसार के सभी प्राणी प्रकाश से प्रसन्न हों, यह न तो कभी हुआ है और न भविष्य में कभी संभव ही होगा। इस प्रयास में हमें कितनी सफलता मिली है, इसका मूल्यांकन तो विज्ञ पाठक एवं विद्वान् इतिहासज्ञ स्वयं कर सकेंगे।
अन्त में हम सम्पादक मण्डल सहित उन सभी ग्रन्थकारों के प्रति आन्तरिक आभार प्रकट करते हैं, जिनके ग्रन्थों से हमें इस दुरूह कार्य में सहायता मिली है।
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