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________________ उपरिलिखित सभी तथ्यों के परिप्रेक्ष्य में पूर्वाभिनिवेश-विमुक्त प्रशान्त मन से विचार करने पर निष्पक्ष विज्ञ विचारक को सुस्पष्ट रूप से इस तथ्य की अनुभूति होगी कि इस धर्मक्रान्ति का श्रेय हमने-आपने-सभी ने लोंकाशाह के सिर पर रख दिया, अन्यथा उन्होंने कोई नई बात नहीं कही। लोंकाशाह ने तो केवल उन तथ्यों की ओर जैन-जन-जन का ध्यान आकर्षित किया जो आचारांग आदि आगमों, महानिशीथ आदि आगमिक ग्रन्थों, दर्शनसार, पट्टावलियों, संघादेश आदि में पूर्वाचार्यों के तथ्य प्रतिपादक कथनों के रूप में बहुत पहले से ही विद्यमान थे। उदाहरण के रूप में जैसा कि पहले मूल सूत्र पाठ के उल्लेख के साथ बताया जा चुका है, आचारांग में स्पष्ट उल्लेख है कि - वह कोई भी कार्य चाहे किसी भी उद्देश्य से किया जाए, यहां तक कि मोक्ष प्राप्ति के लिये भी किया जाय, उसमें यदि षड् जीव निकाय में से किसी भी जीव निकाय के प्राणियों की हिंसा होती है तो वह कार्य अबोधि का जनक और अनन्त काल तक अनन्त दुःखों से ओतप्रोत संसार में भटकाने वाला होगा। यही तथ्य महानिशीथ में मरकत छवि कमलप्रभ (जिनका महानिशीथ के शब्दों में-चैत्यवासियों ने सावधाचार्य नाम रख दिया) और भावार्चना को सर्वश्रेष्ठ सिद्ध करने वाले प्रकरणों में - प्रकाशित किया गया है। इसी तथ्य को तो लोकाशाह ने भी दुन्दुभि घोष-सन्निभ घोष में प्रकट किया। लोकाशाह ने नई बात कौन सी रखी ? इसी प्रकार अणहिल्लपुर पत्तन की सोलंकीराज दुर्लभराज की सभा में चैत्यवासियों के साथ हुए शास्त्रार्थ में वर्द्धमान सूरि की विद्यमानता में उनके शिष्य जिनेश्वर सूरि ने स्पष्ट शब्दों में कहा था कि वे गणधरों द्वारा ग्रथित एवं चतुर्दश पूर्वधरों द्वारा निर्मूढ़ आगमों को ही प्रामाणिक मानते हैं। यही बात लोंकाशाह ने कही। लोंकाशाह के किसी भी कथन में ऐसी नवीनता कहाँ है जो आगमों में तीर्थंकर प्रभु महावीर द्वारा अथवा आगमिक तथा आगमेतर ग्रन्थों में पूर्वाचार्यों द्वारा आगम-सम्मत न कही गई हो। इस प्रकार की स्पष्ट तथ्यपूर्ण स्थिति के होते हुए भी यदि कोई तिल का ताड़ और बुलबुले का बवाल बनाने पर ही कटिबद्ध हो तो उसको दूर से ही नमस्कार कर लेने के अतिरिक्त अन्य कोई करणीय अवशिष्ट नहीं रह जाता। प्रस्तुत ग्रन्थ में-आगमों, प्राचीन ताड़पत्रों-ताम्रपत्रों, ग्रन्थों, पुरातात्विक अभिलेखों-अवशेषों, यशस्वी इतिहासविदों एवं विद्वान् आचार्यों द्वारा देश के विभिन्न स्थानों में समय-समय पर प्रकट किये गये जिन तथ्यों के आधार पर जैन धर्म के विशुद्ध स्वरूप, (२५) For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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