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यह सब प्रत्यक्षतः एवं परोक्षतः उस शान्त - शीतल धर्म - क्रान्ति का ही प्रताप था, जिसका सूत्रपात धर्मोद्धारक धर्मवीर लोंकाशाह ने विक्रम की सोलहवीं शताब्दी के प्रथम दशक में किया । अमावस्या की घोर अन्धकारपूर्ण काल रात्रि में पथ भूला हुआ पथिक जिस प्रकार प्रातः प्रभाकर के प्रकाश में सही मार्ग पर आरूढ़ हो अपने लक्ष्य स्थल निजगृह में आ जाता है। ठीक उसी प्रकार महानिशीथोद्धार के रूप में याकिनी महत्तरा सूनु आचार्य हरिभद्र सूरि द्वारा, तदनन्तर समय-समय पर अनेक भवभीरू एवं धर्म संघ के चक्षुभूत आचार्यों द्वारा इंगित और अन्ततोगत्वा धर्मवीर लोकाशाह द्वारा प्रबल वेग से प्रदीप्त की गई - सद्धर्म की ज्योति के प्रकाश में लगभग एक हजार वर्ष से धूमिल रहे सत्पथ को, जिन धर्म के सच्चे मूल स्वरूप को, और सच्चे श्रमणाचार को भव्यात्माओं ने पहिचाना, समझा और स्वीकार किया। गुजरात, गोड़वाड़, मारवाड़, मेवाड़, ढूंढाड़, हाडोती, मत्स्य, मालवा, उत्तरप्रदेश के अनेक क्षेत्रों में लोकाशाह द्वारा प्रदीप्त की गई सद्धर्म की मशाल का प्रकाश आश्चर्यकारी वेग से फैलने लगा। जैन संघ में उस धर्म क्रान्ति के प्रताप से नवजीवन का संचार हुआ। लगभग एक हजार वर्ष से प्रगाढ़ निद्रा में सोये हुए अनेक गच्छों ने करवट बदली। गच्छाधिपति सूरीश्वर आनन्द विमल सूरि स्वयं के कथना नुसार सवामण सोने सवा सेर मोतियों, वही - वट की बहियों (देश के किसी भी भाग में बसने वाले अपने श्रावकों के परिवार के सभी सदस्यों के नाम, उनके द्वारा समय-समय पर गुरु चरणों में की जाने वाली रजत अथवा स्वर्णमुद्राओं की भेंट के लेखे-जोखे की बहियां Account Books) और अन्य सभी प्रकार के परिग्रह का परित्याग और क्रियोद्धार कर घोर तपश्चरण, अप्रतिहत विहार, भव्य प्रतिबोधन, मूर्तियों की प्रतिष्ठा, मन्दिरों के नवनिर्माण आदि के रूप में अभिनव उत्साह के साथ स्व-पर-कल्याण एवं जिन शासन की प्रभावना के कार्य क्षेत्र में अग्रसर हुए। एक हजार वर्ष की निद्रा तन्द्रा लोकाशाह द्वारा उद्घोषित दुन्दुभिघोष से ही तो भंग हुईई-यह तथ्य तो श्री आनन्द विमल सूरि के कथन से और लोंकाशाह के आलोचक आचार्यों श्रमणों आदि द्वारा रचित छोटी बड़ी अनेक कृतियों से स्पष्टतः प्रकट होता है। लोकाशाह द्वारा की गई धर्म क्रान्ति से प्रेरणा लेकर श्रमण भ. महावीर के धर्म संघ के विभिन्न गच्छों के आचार्यों, श्रमण-श्रमणि समूहों ने धर्म संघ में एक सहस्राब्दि से घर किये हुए शिथिलाचार के विरुद्ध एक व्यापक अभियान प्रारम्भ किया, इस अर्थ में तो चाहे कोई माने अथवा न माने प्रत्येक जैन धर्मावलम्बी लोकाशाह के प्रति कृतज्ञता - आभार आदि के आध्यात्मिक भार से भाराक्रान्त है ।
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