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वटियाँ जल में घोल दी हैं, सवा मन सोने की मूर्ति अन्धकूप में डाल दी, सवा पाव सेर मोतियों का चूरा करवा के फेंक दिया है, दूसरा भी सभी प्रकार का परिग्रह छोड़ दिया है।
श्री राजविजय सूरि ने सं. १५८२ में क्रियोद्धार करने वाले लघुशालिक आचार्य श्री आनन्द विमल सूरि के पास योगोद्वहन करके श्री राजविजय सूरि नाम रखा, बाद में तीनों आचार्यों ने अपने-अपने परिवार के साथ भिन्न-भिन्न देशों में विहार किया। .. . १
किस धरातल तक पहुँच गया था श्रमण वर्ग और उसका श्रमणाचार ? जिन शासन की इस प्रकार की दयनीय दशा से दुखित हो लोकाशाह को धर्मक्रान्ति का शंखनाद पूरना पड़ा। श्रमणवर्ग और श्रमणाचार की इस प्रकार की अशास्त्रीय दुःखद स्थिति लोंकाशाह द्वारा प्रारम्भ की गई धर्मक्रान्ति के ७४ वर्ष पश्चात् तक की है लोंकाशाह के समय में तो अनुमान किया जा सकता है कि इससे भी कहीं अधिक दयनीय दशा रही होगी। श्री तपागच्छ पट्टावली-सूत्र की गाथा संख्या १८ की व्याख्या में लिखा है -
"आनन्द विमल सूरि के समय में साधुओं में शिथिलता अधिक बढ़ गई थी, उधर प्रतिमा विरोधी तथा साधु विरोधी लुंपक तथा कटुक मत के अनुयायियों का प्रचार प्रतिदिन बढ़ रहा था। इस परिस्थिति को देखकर आनन्द विमल सूरि जी ने अपने पट्टगुरु आचार्य की आज्ञा से शिथिलाचार का परित्याग रूप क्रियोद्धार किया। आपके इस क्रियोद्धार में कतिपय संविग्न साधुओं ने साथ दिया, यह क्रियाद्धोर आपने १५८२ के वर्ष में किया। आपकी इस त्यागवृत्ति से प्रभावित होकर अनेक गृहस्थों ने “ लुंकामत' तथा "कडुआमत" का त्याग किया और कई कुटुम्ब धनादि का मोह छोड़कर दीक्षित भी हुये। ....
क्रियोद्धार करने के बाद श्री आनन्द विमल सूरि जी ने १४ वर्ष तक कम से कम षष्ठतप करने का अभिग्रह रखा। आपने उपवास तथा छट्ठ से २० स्थानक तप का आराधन किया, इसके अतिरिक्त, अनेक विकृष्ट तप करके अन्त में (वि. सं.) १५९६ में चैत्र सुदि में आलोचनापूर्वक अनशन करके नव उपवास के अन्त में अहमदाबाद नगर में स्वर्गवासी हुए।२
१ पट्टावली पराग संग्रह, लेखक और सम्पादक पं. कल्याण विजय गणि, प्रकाशक श्री क. वि. शास्त्र संग्रह
समिति के व्यवस्थापक शा. मुनिलालजी थानमलजी - श्री जालोर (राजस्थान) वि. सं. २०२३। पृष्ठ १८८-१८९
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वही पृष्ठ १५३-१५४
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