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यह तो थी लोकाशाह से २२३ वर्ष पूर्व श्रमणाचार की स्थिति । लोकाशाह के समय में श्रमणाचार की स्थिति वस्तुतः महानिशीथ के सावद्याचार्य के प्रकरण में वर्णित चैत्यवासी श्रमणों के आचार-विचार व्यवहार की स्थिति जैसी ही थी। इस सम्बन्ध में एक आश्चर्यकारी उल्लेख इसी शताब्दी के इतिहासज्ञ ज्योतिष विद्या विशेषज्ञ बहुश्रुत विद्वान् स्व. पं. श्री कल्याण विजयजी महाराज सा. द्वारा संकलित सम्पादित “पट्टावली पराग संग्रह' नामक ग्रंथ में मुद्रित ‘राज विजय सूरी गच्छ की पट्टावली' में मिलता है। विक्रम की १६ वीं शताब्दी में श्रमण परम्परा के श्रमणाचार पर प्रकाश डालने वाला वह आश्चर्यकारी उल्लेख अक्षरशः इस प्रकार है :
"५८ पाट पर श्री आनन्द विमल सूरि हुए, एक समय आबू पर यात्रार्थ गये, सूरिजी (च) तुर्मुख चैत्य में दर्शन कर विमल वसही के दर्शनार्थ गये, गभारा के बाहर खड़े दर्शन कर रहे थे, उस समय अर्बुदा देवी श्राविका के रूप में आचार्य के दृष्टिगोचर हुई, आचार्य श्री ने उसे पहचान लिया और कहा - देवी ! तुम शासन भक्त के होते हुए लुंगा के अनुयायी जिन मन्दिर और जिन-प्रतिमाओं का विरोध करते हुए, लोगों को जैन मार्ग से श्रद्धाहीन बना रहे हैं, तुम्हारे जैसों को तो ऐसे मतों को मूल से उखाड़ डालना चाहिये। यह सुनकर देवी बोली-पूज्य ! मैं आपको सहत्रो (स्रौ) षधि का चूर्ण देती हूं। वह जिसके सिर पर आप डालेंगे वह आपका श्रावक बन जायेगा और आपकी आज्ञानुसार चलेगा, इसके बाद अर्बुदा देवी आचार्यश्री को योग्य भलामण देकर अदृश्य हो गई, बाद में आचार्य वहां से विहार करते हुये विरल (विसल) नगर पहुँचे, वहीं श्री विजयदान सूरि चातुर्मास्य रहे हुए थे, वहीं आकर आनन्द विमल सूरिजी ने देवी प्रश्नादिक सब बातें विजयदान सूरिजी को सुनायी, जिससे वे भी इस काम के लिए तैयार हुए, वहां से आनन्दविमल सूरि और विजयदान सूरि अहमदाबाद के पास गांव बारेजा में राजसूरिजी के पास आए और कहा - हम दोनों लुंका मत का प्रसार रोकने के कार्यार्थ तत्पर हैं, तुम भी इस काम के लिये तैयार हो जाओ, यह कहकर श्री आनन्द विमल सूरि जी ने कहा-मेरे पट्टधर विजयदान सूरि हैं ही
और विजयदान सूरि के उत्तराधिकारी श्री राजविजय सूरि को नियत करके अपन तीनों आचार्य तपगच्छ के मार्ग की मर्यादा निश्चित करके अपने उद्देश्य के लिये प्रवृत्त हो जाएं, आनन्दविमल सूरिजी ने श्री राजविजय सूरि को कहा-तुम विद्वान् हो इसलिये हम तुम्हारे पास आये हैं, लुकामति जिन शासन का लोप कर रहे हैं, मेरा आयुष्य तो अब परिमित है, परन्तु तुम दोनों योग्य हो, विद्वान् हो और परिग्रह सम्बन्धी मोह छोडकर वही वट की
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