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स्वार्थ-परमार्थ परक प्रयोजन से, यहां तक कि मुक्ति प्राप्ति के लिए भी यदि हिंसा की जाय तो वह हिंसा, हिंसा करने, कराने और उस हिंसा का अनुमोदन करने वाले के लिए घोर अहित का, महाअनर्थ का और अनन्तकाल तक भवभ्रमण कराने वाली अबोधि का कारण होती है" - इस प्रकार के मूल आगमों के आधार पर एवं महानिशीथ के उपर्युद्धृत उल्लेखों के आधार पर मन्दिर-मूर्ति-निर्माण आदि के माध्यम से होने वाली द्रव्यार्चना-द्रव्यपूजा को अश्रेयस्करी और भावार्चना-भावपूजा को परम श्रेयस्करी बताया।
देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण के स्वर्गारोहण के परवर्तिकाल से लेकर लोकाशाह द्वारा किये गये धर्मक्रान्ति के सूत्रपात के समय तक जैन धर्म के स्वरूप में, श्रमणों के आचार-विचार-व्यवहार में किस प्रकार की विकृतियां आ गई थीं, इस पर प्रस्तुत ग्रन्थ में विस्तारपूर्वक तटस्थ भाव से पुरातात्विक, प्राचीन ऐतिहासिक सामग्री के आधार पर प्रकाश डाला गया है। उस समय श्रमण समूह के चक्षुतुल्य माने गये आचार्य का श्रमणाचार किस स्थिति को पहुँच गया था, इस सम्बन्ध में - J. B. R. A. S. Vol. १०० २६० f. f. में उल्लिखित सोंदन्ती से प्राप्त शिलालेख के सारांश के रूप में प्रसिद्ध पुरातत्वविद् इतिहासज्ञ स्व. श्री पी. वी. देसाई द्वारा लिखित विवरण सत्यान्वेषियों के सन्तोष के लिए पर्याप्त होगा :
"Lastly, we may notice more inscription from Saundanti, which offers interesting details about the Jaina teachers. The epigraph is dated A.D. १२२८...............The Jaina teacher was Munichandra, who is styled as the royal preceptor of Ratta House. Munichandra's activities were not confined to the sphere of religion alone. Besides being a spiritual guide and political adviser of the royal household, he appears to have taken a leading part not only in the administrative affairs, but also in connection with the military campaigns of the kingdom, he is stated to have expended the boundries of the Ratta territories and established their authority on a firm footing. Both Laxmideo II and his father Kart Veerya IV were indebted to this divine for his sound advice and political wisdom. Munichandra was well versed in sacred lore and proficient in military science. "Worthy of respect, most able among ministers, the establishers of Ratta kings, Munichandra surpassed all others in capacity for administration and in generosity."
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Jainism in South India and Some Jaina Epigraphs, by P. B. Desai, p. 114, 115 (Published byJain Sanskriti Samrakshak Sangh, Sholapur, 1957)
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