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मिली है ।..... प्राचीन जिन-आकृतियाँ दिगम्बर अर्थात् नग्न हैं।
तीर्थंकर :-........... मथुरा संग्रहालय की निश्चत संवत से अंकित प्रतिमाओं में कुषाण सं. ५ (८३ ई.) की चौमुखी मूर्ति बी. ७१ सब से प्राचीन है। सामान्य जिन-प्रतिमाओं में प्राचीन है कनिष्क सं. १७ अर्थात् ८५ ई. की चरण चौकी (संख्या ५८-३३८५), और सबसे बाद की है सं. ९२ अर्थात् १७० ई. की वासुदेव के शासन की।
नेमिनाथ : . ... अन्य मूर्ति संख्या ३४-२५०२ में मध्य में आवक्ष नेमिनाथ के दाहिनी ओर सात सर्पफणधारी चतुर्भुजी बलराम हैं जिनके ऊपर के बायें हाथ में हल है, जो बलराम की मुख्य पहचान है। बांई ओर श्री कृष्ण को विष्णु रूप में दिखाया है, जिनके चार भुजाएं हैं। .. . यह प्रतिमा कुषाण काल के अन्त और गुप्त युग के आरम्भ की प्रतीत होती है।
जिस प्रकार राजकीय संग्रहालय मथुरा की पुरातत्व सामग्री के गहन अध्ययन के अनन्तर प्रमाण पुरस्सर उपरिलिखित तथ्यों पर पुरातत्व विभाग के मान्य विद्वान् श्री शर्मा ने प्रकाश डाला है, उसी प्रकार कर्णाटक प्रदेश के प्राचीन एवं मध्ययुगीय ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर इतिहास के तटस्थ विद्वान् श्री रामभूषण प्रसादसिंह ने अपनी पुस्तक "जैनिज्म इन अब मीडियेवल कर्णाटक" में लिखा है :
“ Naturally the early Jains did not practice image worship, which finds no place in the Jaina Canonical literature."
इसी प्रकार कन्या कुमारी की "श्री पादपाइ" नामक जो पहाड़ी समुद्र तट से २०० गज सागर के अन्दर की ओर है, उस पहाड़ी की चट्टान पर अंकित पवित्र चरण-चिह्न को तीर्थंकर भगवान् का चरण चिह्न बताते हुए इतिहासज्ञ विद्वान ??? पद्मनाभन ने "The forgotten History of the Land's End" में सर ??? विलियम का मूर्तिपूजा व चरण-चिह्न-पूजा के सम्बन्ध में अभिमत व्यक्त करते हुए लिखा है :
"He opines that Jainism first introduced foot-print-worship in Indian religion."
तो जिस प्रकार भव-विरह याकिनी महत्तरा सूनु हरिभद्र सूरि से लेकर वर्तमान काल के श्री रमेशचन्द्र शर्मा, एस. पद्मनाभन, रामभूषण प्रसादसिंह आदि विद्वानों ने जैनों में प्रचलित मूर्तिपूजा के सम्बन्ध में जो अभिमत व्यक्त किए हैं, उसी प्रकार महान् धर्मोद्धारक लोकाशाह ने भी “षड्जीव निकायों में से किसी भी जीव निकाय के प्राणियों की किसी भी
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