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(१) “आयागपट्ट-किन्तु जैन मूर्तिकला का जो क्रमिक और व्यवस्थित रूप हमें मथुरा में मिलता है, वह अन्यत्र नहीं। आरम्भ आयागपट्टों से होता है, जिसे जर्मन विद्वान बूलर पूजा-शिला मानते हैं। डॉ. वासुदेव शरण अग्रवाल का मत है कि "आयागपट्ट" शब्द "आर्यक" से निकला है, जिसका अभिप्राय-पूजनीय है। किसी संवत के न मिलने से इनका ठीक समय बता सकना तो संभव नहीं है, किन्तु शैली के आधार पर विद्वानों ने अपना मन्तव्य प्रकट किया है। बी. सी. भट्टाचार्य इन्हें कुषाण युग से पहले का मानते हैं। डॉ. लाहुजन ५० ई. पूर्व से ५० ई. के बीच निर्धारित करती हैं। डॉ. अग्रवाल के अनुसार प्रथम शती ई. इनका उचित काल है। निश्चय ही ये पूजा-शिलाएं उस संक्रमण काल की हैं, जब कि उपासना का माध्यम प्रतीक थे और देवताओं तथा महापुरुषों को मानव रूप में अंकित करने का अभियान भी चल पड़ा था । १ इनमें बहुत से शोभा चिन्ह उत्कीर्ण हैं और उपास्य देवता या महापुरुष का संकेत भी स्तूप, धर्म, स्वस्तिक आदि प्रतीकों से ही हुआ है। कहीं-कहीं लेख में उपास्य का नाम भी मिल जाता है। साथ ही कुछ आयागपट्ट ऐसे हैं, जिनके बीच में प्रतीक के स्थान पर उपास्य की छोटी सी मानवाकृति आ गई है और उसके चारों ओर बड़े-बड़े प्रतीक हैं।
यह निर्विवाद है कि कुषाण काल में महापुरुषों और देवताओं की स्वतन्त्र मानवाकृतियां बन गई थीं। इसके पहले प्रतीकोपासना ही प्रचलित थी। (जैसा कि मथुरा के पूर्ववर्ती दूसरी और पहली शती ई. की भरहुत और सांची कला शैलियों से स्पष्ट है।) अतः प्रतीक
और मूर्ति उपासना की संक्रमण स्थिति प्रथम शती ई. पूर्व के मध्य से प्रथम शताब्दी ई. के बीच मान लेना न्यायसंगत है और मथुरा के जैन आयागपट्ट इसी अवधि के और कुषाण युग से पहले (के) ही हैं। प्रतीकोपासना के कट्टरपंथी काल में ब्राह्मणधर्म में मूर्तियों की लोकप्रियता से प्रभावित हो कलाकार ने बहुत छोटे रूप में कुछ आयागपट्टों में अन्य प्रतीकों के बीच तीर्थंकरों को भी आसीन कर दिया और सामाजिक प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा करने लगा। जब उसे शनैः शनैः समर्थन प्राप्त हुआ तभी जिन प्रतिमाओं का निर्माण हुआ। यह समय कनिष्क के राज्यारोहण के आस-पास था और उसके समय मिले राज्याश्रय के फलस्वरूप माथुरी शिल्प का रूप सर्वत्र दमक उठा। आयाग-पट्टों में जो शुभ चिह्न प्राप्त होते हैं, वे अधिकांशतः ये हैं : स्वस्तिक, दर्पण, पात्र या शरावसंपुट-दो सकोरे, भद्रासन, मत्स्ययुगल, मंगल कलश और पुस्तक । इन्हें अष्टमंगल चिन्ह कहते हैं। इनकी संख्या कम या अधिक भी रहती है और चिन्हों में अन्तर भी मिलता है - जैसे - श्रीवत्स, चैत्य का बोधिवृक्ष, त्रिरत्न भी प्रायः चिन्हित पाये जाते हैं।
जिन-प्रतिमाओं की सामान्य विशेषताएँ-स्वतन्त्र जिन-मूर्तियाँ ध्यानभाव में पद्मासनासीन अथवा दण्ड की तरह खड़ी-जिसे कायोत्सर्ग भी कहते हैं, इन दो रूपों में १ विभिन्न विद्वानों के संक्षिप्त विचार के लिये इस लेख के लेखक का निबन्ध 'Early phase of Jain
Econography' Chhotelal Commemoration Vol. cal. p. ५९-६० देखें।
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