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________________ में-निर्ग्रन्थ प्रवचन में गणिपिटक में एक भी ऐसा मन्त्र है जिसे श्रमण भ. महावीर ने सिद्धक्षेत्र में विराजमान जिनेश्वरों के मूर्ति में आह्वान के लिये, मूर्ति में उन जन्म-जरा-मृत्युञ्जयी अजन्मा जिनेश्वरों की प्राण प्रतिष्ठा के लिये प्ररूपित किया हो अथवा गणधरों ने दृब्ध किया हो ? क्योंकि एकादशांगी में एक भी ऐसा मन्त्र विद्यमान नहीं है, इसलिये आपको, हमें और सभी को यही कहना पड़ेगा कि - "नहीं।" प्रकाश तो सूर्य से ही होगा, सूर्य की मूर्ति से कदापि नहीं । मूर्ति सूर्य की है, पर अन्धकार पूर्ण गृह में रखी हुई है। उस दशा में उस सूर्य की मूर्ति के द्वारा दूसरों को प्रकाश दिये जाने की बात तो दूर उसके लिये स्वयं को प्रकाशित करना भी संभव नहीं हो सकेगा। उसको देखने के लिये सूर्य के प्रकाश की अथवा दीपक आदि किसी अन्य प्रकाश की अनिवार्यरूपेण आवश्यकता होगी। उस अंधकारपूर्ण गृह की छत के छिद्र से यदि सूर्य की एक भी किरण सूर्यमूर्ति के पार्श्व में रखे दर्पण पर पड़ेगी तो अंधेरे घर में उजाला होगा और सूर्य की वह मानवनिर्मित मूर्ति तत्काल दृष्टिगोचर हो जायेगी। ठीक उसी प्रकार लोकाग्र पर अवस्थित सिद्धशिला पर अनन्त - अक्षय अव्याबाध सुख में विराजमान निरञ्जन-निराकार-अजन्मा - अविकार अमूर्त जिनेश्वर भगवान् घट के पट खोलकर उनसे लगाने वाले साधक के विशुद्ध निर्मल अन्तःकरण में भक्त कवि के निम्नलिखित शब्दों में सहसा अलौकिक दिव्य आलोक के रूप में उद्भासित हो जायेंगे : मुक्तिंगतोऽपीश ! विशुद्ध चित्ते, धरोपेण ममास साक्षात् । भानुर्दवीयानपि दर्पणेंऽशु, संगान्न किं द्योतयते गृहान्तः ॥ लोकाशाह से उत्तरवर्ती काल के इतिहास विदों, मनीषी विद्वानों, निष्पक्ष चिंतकों में गहनशोध के अनन्तर इस सम्बन्ध में अपने जो मननीय अभिमत व्यक्त किये हैं, वे इस प्रकार हैं : लब्धप्रतिष्ठ पुरातत्वविद् विद्वान् श्री रमेश चन्द्र शर्मा, निदेशक, राजकीय संग्रहालय, मथुरा, जो लखनऊ के विख्यात राजकीय संग्रहालय में भी महत्वपूर्ण पद पर रह चुके हैं, उन्होंने मथुरा के राजकीय संग्रहालय में उपलब्ध जैन इतिहास से सम्बन्धित पुरातत्व सामग्री के गहन अध्ययन के अनन्तर लगभग १२ पृष्ठ का एक शोधपूर्ण लेख तैयार कर उसे अनेक शोध पत्रिकाओं में प्रकाशित करवाया । १ श्री शर्मा के उस लेख के कतिपय महत्वपूर्ण अंश इतिहास में अभिरुचि रखने वाले पाठकों के लिये यहाँ प्रस्तुत किये जा रहे हैं: १ इस लेख की पाण्डुलिपि की प्रतिलिपि हमारे शोधार्थी विद्वान् ने तैयार की जो आ. श्री विनयचन्द्र ज्ञान भण्डार, जयपुर में (हरी जिल्द के रजिस्टर में) विद्यमान है। Jain Education International (१८) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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