SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 35
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ लगभग पांच सौ बत्तीस वर्ष पूर्व लोकाशाह ने प्रमाण पुरस्सर कहा था - "ये नियुक्तियां वस्तुतः चतुर्दश पूर्वधर आचार्य भद्रबाहु की रचनाएं कदापि नहीं हो सकती। उनके इस कथन का उस समय लोंकाशाह के विरोधियों द्वारा कटुतर भाषा में विरोध किया गया। विरोध और अनुमोदन-दोनों ही प्रकार की प्रक्रियाएं लगभग साढ़े चार शताब्दियों तक चलती रहीं। किन्तु ई. सन् १९३१ में जर्मन विद्वान् हर्मन जैकोबी ने भी सप्रमाण स्पष्ट शब्दों में कहा : The author of the Niryukties Bhadrabahu is identified by the Jains with the patriarch of that name who died 170 A.V. There can be no doubt that they are mistaken. For the account of seven schisms (Ninhaga) in the Avashyaka Niryukti VIII 56-100 must have been written 584 and 609 of the Vira Era. There are the dates of the Uth and <th schisms of which only the former is mentioned in the Niryukti. It is therefore, certain that the Niryukti was composed before the Cth schism 609 A.V.? एक निष्पक्ष विदेशी विद्वान् के इस तथ्योद्घाटन ने जैन इतिहास के विद्वानों का ध्यान इस तथ्य की ओर आकर्षित किया। विभिन्न ग्रन्थों के एतद्विषयक उल्लेखों के विश्लेषणात्मक पर्यालोचन से अनेक नवीन तथ्य प्रकाश में आये और श्वेताम्बर परम्परा के प्रायः सभी मनीषी विद्वानों ने यह अभिमत प्रकट किया कि नियुक्तियों के रचनाकार श्रुतकेवली भद्रबाह नहीं अपितु ईसा की छठी शताब्दी के अन्तिम चरण से सातवीं शताब्दी के प्रारम्भ से पूर्व हुए निमित्तज्ञ भद्रबाहु हैं। तो इस प्रकार वि. सं. १५०८ में लोंकाशाह ने नियुक्तियों के रचनाकार के सम्बन्ध में गहन अन्वेषण के पश्चात् जो तथ्य प्रकट किया था, उसे आज प्रायः सभी विद्वान मानने लग गये हैं। लोकाशाह ने इसी आगमवचन को प्रकाश में लाते हुए कहा था - अक्षय अव्याबाध-अनन्त-शाश्वत-सुखनिधान मोक्ष-धाम में विराजमान निरञ्जन-निराकार, सच्चिदानन्द घन स्वरूप सिद्ध भगवन्त-जिनेश्वर प्रभु इस जन्म-जरा-मृत्यु आदि अनन्त दुःखों से ओत-प्रोत संसार में कभी लौट कर नहीं आयेंगे| चाहे कोई एक दिन, एक मास, एक वर्ष, एक शताब्दी-सहस्राब्दि-लक्षाब्दि तक तो क्या अनन्तानन्त लक्षाब्दियों तक भी उनका आह्वान क्यों न करता रहे, वे पुनः इस संसार में नहीं आयेंगे-नहीं आयेंगे-कदापि नहीं पधारेंगे। क्या है कोई एक भी ऐसा जिनवाणी में अटूट आस्था रखने वाला व्यक्ति अथवा विद्वान जो इस शाश्वत सत्य को विनष्ट निरस्त करने की चेष्टा करना चाहेगा? तो फिर रत्न-स्वर्ण-रजत-कांस्य-पीतल-प्रस्तर आदि से निर्मित मूर्तियों में मन्त्रों द्वारा सिद्धशिला पर विराजमान जिनेश्वर प्रभु का आह्वान कैसा ? प्राण-प्रतिष्ठा कैसी ? क्या एकादशांगी 9 Parishishta Parva, Introductory, Page 6. (१७) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy