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और प्रभु महावीर द्वारा दिए गए उन प्रश्नों के उत्तर दृब्ध हैं, उनमें से एक भी तो प्रश्नोत्तर ऐसा नहीं जो मूर्ति निर्माण, मन्दिर निर्माण एवं मूर्तिपूजा से होने वाले फल पर प्रकाश डालता हो।
लोकाशाह ने सत्य का शंखनाद फूंकते हुए कहा था-"ये नियुक्तियाँ चतुर्दश पूर्वधर आचार्य भद्रबाहु की कृतियां नहीं हैं। शास्त्रों का, चूर्णियों, भाष्यों, टीकाओं (वृत्तियों) का आलोडन-मंथन कर अनेक बोलों के रूप में सम्यग्ज्ञान, सम्यग् दर्शन, सम्यक् चारित्र का नवनीत निकाल नियुक्तियों चूर्णियों आदि चतुरंगी के अशास्त्रीय उल्लेखों का अम्बार जैन जगत् के समक्ष रखते हुए अति विनम्र सुसभ्योचित भाषा में यही कहा कि क्या ये मूलआगमों के प्रतिकूल चतुरंगी की बातें किसी सत्यान्वेशी सच्चे जैन के लिये मान्य हो सकती हैं। जी चतुर हैं वे विचार करें।
लोकाशाह के एक-एक शब्द में कैसी अगाध अनुकरणीय विनम्रता ओत-प्रोत है, इसका अनुमान पाठकों को "लोकाशाह के ३४ बोल" नामक लघु पुस्तिका के अन्त में निष्कर्ष के रूप में लिखे गये निम्नलिखित वाक्यों से सहज ही हो सकता है
"तथा बीजा बोल केतला एक विघटता छइ, ते भणी नियुक्ति चउद पूर्व-धरनी भाषी किम सद्दहीइ ? ते भणी डाहइ मनुष्यइ सिद्धान्त ऊपरि रुचि करवी, जिम इह लोकई पर लोकई सुख उपजइ सही।"
(सत्य के प्रस्तुतीकरण के साथ मन भावन मृदु मनोहर मनुहार के अतिरिक्त कहीं लेश-मात्र भी आक्रोश, अशिष्ट वचन अथवा कटुता का नामोनिशां तक नहीं।
इस सत्य तथ्य के उद्घाटन पर जहाँ एक ओर सत्यान्वेशियों ने लोंकाशाह की सराहना की तो दूसरी ओर ज्ञानलवदुर्विदग्धात्माओं ने, पूर्वाभिनिवेशाभिभूत लोगों ने लोकाशाह को जी भर गालियां भी दीं। पर समशत्रुमित्र स्थितप्रज्ञ लोकाशाह न तो सराहना से तुष्ट ही हुए और न असहिष्णु आलोचकों की गालियों से रुष्ट ही। वे तो शताब्दियों से मन्द बन गई नहीं अपितु मन्द बना दी गईं जिन धर्म की ज्योति को जीवन भर उद्दीप्त करने में प्रदीप्त करने में प्राणपण से संलग्न रहे। लोकाशाह द्वारा उद्दीप्त-प्रदीप्त की गई सद्धर्म की दिव्य ज्योति-ज्योतिष्मती मशाल आर्यधरा के इस कोण से उस कोण तक आज सम्यग्ज्ञान-दर्शन-चारित्र का प्रकाश फैलाती हुई "तमसो मा ज्योतिर्गमय' की सूक्ति को चरितार्थ कर रही है। उलूक के न चाहने पर भी रोहणगिरि पर आरूढ़ अरुण वरुण का उदय अनादि काल से आज तक कभी नहीं रुका, उसी प्रकार घोर विरोध की तूफानी सघन-घन-घटाओं के घटाटोप के उपरान्त भी आडम्बरों के अम्बारों से आच्छादित सच्चे आगमानुसारी जैनधर्म का आध्यात्मिक स्वरूप क्रमशः हरिभद्र सरि आदि उपरि नामोल्लिखित पूर्वाचार्यों के क्रमिक तथ्योदघाटनों और अन्ततोगत्वा लोंकाशाह के सदप्रयन्तों से अपनी अलौकिक आभा लिये प्रकाश में आकर ही रहा।
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