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श्रमण-श्रमणी वर्ग के श्रमणाचार का इस प्रकार का स्वरूप प्ररूपित प्रदर्शित किया गया था ? प्रत्येक सच्चे जैन का एक ही उत्तर होगा - “नहीं, नहीं कदापि नहीं।'
महान् धर्मोद्धारक लोंकाशाह ने भी इन सब विकृतियों पर विचार कर, जैनधर्म की इस प्रकार धूमल की गई छवि पर गहरा दुःख प्रकट करते हुये कहा था - "संसार के प्राणिमात्र के सच्चे त्राता विश्वबन्धु करुणासिन्धु श्रमण भगवान् महावीर ने निखिल जगत् के प्राणियों के हित की साधना के लिये विश्वधर्म-जैनधर्म का जो स्वरूप, श्रमण-श्रमणी-श्रावक-श्राविका रूपी चतुर्विध तीर्थ के आचार-विचार व्यवहार का जो स्वरूप बताया था वह इस प्रकार का कदापि नहीं था, जिस प्रकार का कि आज चारों ओर दृष्टिगोचर हो रहा है। विश्वबन्धु वीर जिनेश्वर ने तो प्राणिमात्र के प्राणों की रक्षा-दया को ही धर्म का प्राण बताते हुए आचारांग सूत्र के प्रथम श्रुत स्कन्ध के दूसरे उद्देशक में स्पष्टतः फरमाया था -
__ "संति पाणा पुढोसिया लजमाणा पुढोपास अणगारामोत्ति एगे पवयमाणा जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं पुढविकम्म समारंभेणं पुढविसत्थं समारंभेमाणा जमिण विरूव रूवहि सत्थेहिं पुढविकम्म समारंभेणं पुढविसत्थं सभारंभेमाणा अण्णे अणेग रूवे पाणे विहिंसइ।
तत्थ खलु भगवया परिण्णा पवेइया, इमस्स चेव जीवियस्स परिवंदण, माणण, पूयणाए, जाइ मरण मोयणाए, दुक्खपडिघायहेउँ से सयमेव पुढविसत्थं समारंभइ......... संमारंभावेइ . ... समारंभंते समणुजाणइ । तं से अहियाए तं से अबोहिए. ''
___ अर्थात् साररूपतः कोई भी व्यक्ति अपने जीवन को बनाये रखने के लिए, अपने मान-सम्मान-पूजा आदि के लिये अथवा जन्म-मरण से मुक्ति पाने अर्थात् मोक्ष प्राप्ति तक के लिये दुःखों से छुटकारा पाने के लिये इन षड्जीव निकाय का आरम्भ समारम्भ करता है, करवाता है और करने वाले को भला समझता है तो वह उसके लिए घोर अहितकर, घोर अनर्थकारी है, वह उसे अबोधि अर्थात् घोर मिथ्यात्व के घनान्धतम अन्धकार में डालने के लिए है।
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जिस सत्य बात को, जिस शास्त्र सम्मत शाश्वत सत्य को प्रकट करने के परिणाम-स्वरूप महानिशीथ के उल्लेखानुसार महान चारित्र निष्ठ श्रमणश्रेष्ठ आचार्य कुवलय प्रभ को स्वार्थपरक धर्मान्ध लबार लोगों और वेषधारियों ने 'सावधाचार्य' की अशोभनीय उपाधि से और दिगम्बराचार्य रामसेण को जैनाभास की उपाधि से अलंकृत किया, उसी आगम सम्मत शाश्वत सत्य को धर्मोद्धारक लोकाशाह ने भी प्रकट किया है :
हैं जिसकी जात से रोशन, ये सूरज चाँद और तारे।
महा अन्धेर है उसको, अगर दीपक दिखाऊं मैं ॥ लोकाशाह ने कहा था-भगवती सूत्र में गणधरों द्वारा प्रभु से पूछे गये ३६,००० प्रश्न
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