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का अवलोकन-चिन्तन-मनन किया तो उनके अन्तस्तल में जैनधर्म के शास्त्र सम्मत सच्चे स्वरूप की एक झलक प्रकट हुई। उकने चैत्यवासी गुरु ने उन्हें उपाध्याय पद पर अधिष्ठित कर चैत्यवासी परम्परा में ही बने रहने का प्रलोभन दिया। उनके समय में चूर्णिया नियुक्तियां भाष्य वृत्तियाँ आदि विद्यमान थीं वे सब उन्हें सत्पथ की ओर बढ़ने से नहीं रोक सके और उन्होंने अरण्यचारी-वनवासी परम्परा के आचार्य उद्योतन सूरि के पास उपसम्पदा-शास्त्र सम्मत विशुद्ध श्रमण धर्म की दीक्षा ग्रहण कर उनसे गणिपिटक का निग्रंथ प्रवचन का तलस्पर्शी अध्ययन किया । वर्द्धमान सूरि की विद्यमानता में उनके शिष्य जिनेश्वर सूरी का जब गुर्जरेश वल्लभराज की अणहिल्लपुर पट्टन की राजसभा में चैत्यवासियों के साथ शास्त्रार्थ हुआ और प्रमाण के रूप में चैत्यवासी आचार्यों द्वारा निर्ग्रन्थ प्रवचन के स्थान पर अन्य शास्त्र प्रस्तुत किये जाने लगे तो जिनेश्वर सूरि ने स्पष्ट शब्दों में दुर्लभराज से कहा - "महाराज ! अस्माकं मतेऽपि यद् गणधरैश्चतुर्दश पूर्वधरैश्च यो दर्शितो मार्गः स एव प्रमाणीकर्तुयुज्यते, नान्यः । ततो राज्ञोक्तः - "युक्तमेव।'
वर्द्धमान सूरि-जिनेश्वर सूरि के समय में पंचागी विद्यमान थी न ? उन्होंने तो चतुर्दश पूर्वधरैश्च के आगे पंचागिभिश्च शब्द नहीं जोड़ा ? सत्य अन्ततोगत्वा सत्य ही है। क्या इस सत्य तथ्य को 'हुँ' कहकर टाला जा सकता है ? क्या महानिशीथ में हरिभद्र सूरि महत्तस सूनु द्वारा प्रकाश में लाये गये उपरिवर्णित १ से ३ की संख्या से अंकित तीन शाश्वत सत्यों को लुंपक पंथी, स्थानक पंथी जैसे किसी भी सुसभ्य के लिये अशोभनीय शब्दों के उच्चारण मात्र से वितथ किया जा सकता है ?
देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण से उत्तरवर्ती काल में जैनधर्म के स्वरूप की छवि का अभयदेव सूरि ने “सिढिलायारे ठविया, दव्वओ परम्परा बहुहा", जिनदत्त सूरि ने गड्डुरि पवाहओ जो ...", श्री वीरवंश पट्टावली के रचनाकार श्री भावसागर सूरि ने -
दुस्सह दूसमवसओ, साह-पसाहाहिं कुलगणाईहिं।
विजा किरियाभट्ठा, सासणमिह सुत्तरहियं च ॥ १९ ॥ इन गाथाओं के माध्यम से जो चित्रण किया है, उसी छवि को दक्षिण भारत के वे सैकड़ों शिलालेख ताम्रपत्र आदि और भी स्पष्ट रूप से उभार कर समाज के समक्ष विज्ञ चिन्तकों के विचारार्थ प्रस्तुत कर रहे हैं, जिनमें राजाओं, महाराजाओं, सामन्तों, सेनापतियों, श्रेष्ठियों आदि सभी वर्गों के गृहस्थ पुरुषों एवं महिलाओं द्वारा यापनीय श्रमण संघ, निग्रंथ-श्वेताम्बर-दिगम्बर-कूर्चक श्रमणसंघों के आचार्यों को मुनियों के भोजन हेतु एवं मन्दिरों, मठों, वसदियों आदि की व्यवस्था हेतु दिये गये और उन आचार्यों द्वारा ग्रहण किये गये ग्रामदान, भूमिदान, भवनदान, द्रव्यदान, करांशदान आदि का सुस्पष्ट रूप से उल्लेख है। क्या श्रमण भगवान् महावीर द्वारा तीर्थ प्रवर्तन काल में जैनधर्म का, पंचमहाव्रतधारी
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