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________________ सिद्धान्ता दृष्टा न द्वितीयैः ?" १ ९. महान् धर्मोद्धारक लोकाशाह से लगभग २०९ वर्ष पूर्व जिन प्रतिमाओं की द्रव्य पूजा में कतिपय ऐसे सुधार किए गए, जिन्हें उस समय के देशव्यापी वातावरण को देखते हुये क्रान्तिकारी सुधार की संज्ञा दी जा सकती है। उन क्रांतिकारी सुधारों की घोषणा अनेक आचार्यों के हस्ताक्षरों से अंकित, अनेक आचार्यों से अनुमोदित एवं तत्कालीन अनेक गणमान्य श्रावक प्रमुखों तथा श्रेष्ठिमुख्यों द्वारा साक्षीकृत एक संधादेश से की गई। वह क्रान्तिकारी ऐतिहासिक संधादेश इस प्रकार है : संघादेश सं. १२९९ वर्षे १३ त्रयोदश्यां। अद्येह श्रीमन्नणहिल्लपाटके समस्त राजा वलि विराजिता। महाराजाधिराज श्री त्रिभुवनपाल देव विजय राज्ये तन्नियुक्त महामात्य दण्ड श्री ताते श्री श्री करणादि समुद्राव्यापारान परिपंथयति सत्येवं काले प्रवर्तमाने श्री संघादेशपत्रमभिलिख्यते । यथा श्री अणहिल्ल पाटके प्रतिष्ठित समस्त श्री आचार्य, समस्त श्री श्रावक, प्रभृति समस्त श्री श्रमणसंघश्चित्रावाल गच्छीय देवभद्रगणि शिष्य आचार्य गजचन्द्र सूरि, श्री देवेन्द्र सूरि, श्री विजय चन्द्र सूरि प्रभृति आचार्यान् पद्मचन्द्रगणि प्रभृति तपोधनान, श्री पं. कुलचन्द्रगणि, अजितंप्रभ गणि प्रभृति परिवार समस्थितान सप्रसाद समादिशति-यथा यति-प्रतिष्ठा कर्त्तव्या च, श्रावक प्रतिष्ठा च न प्रमाणीकार्या | १| तथा श्री देवस्य पुरतो बलि नैवेद्य रात्रिकादीनि निषेध्यानि । २। तथा समस्त वैयावृत्यकरणां ॥ सम्यग् दृष्टि समस्त, अम्बिकादि मूर्ति प्रभृतिनां गृह चैत्येषु च संतिष्ठमानानां पूजानिषेधो मा कार्यः।३। श्री संध प्रतिष्ठित, श्री आचार्यैस्तपोधनैश्च समं यथा पर्याय वंदनक व्यवहारः करणीयः । ४ । स्व प्रतिबोधित श्रावकाणां, समस्तगच्छीयाचार्यतपोधनानां, पूजा वंदनकादि निषेधो न कार्यः । ५। राकापक्षीय, आञ्चलिकस्त्रिस्तुतिकादिभिश्च सह वन्दनक-व्यवहारः श्रुताध्ययनाध्यापानादि व्यवहारश्च न करणीयः । ६ .... | ७ |... | ८ |... | ९ |..... · | १०/ ....... | ११| ....... किं बहुना '१२' श्रीमन्नणहिल्ल पाटके प्रतिष्ठित श्री श्रमण संघस्य आज्ञा मन्यमानैः सर्वैरपि आचार्यैः तपोधनैश्च बहिरपि व्यवहारणीयं । १२। एवं श्री संघादेशं कुर्वाणा आचार्यतपोधनाश्च श्री संघस्याभिमता एव । एनं च संघादेशं कुर्वाणान् अंगीकृत्य, अकुर्वाणानां आज्ञातिक्रमदोषवता-अमीषां श्रावकाश्च संघबाह्या कर्त्तव्या । यदि पुनः . . | २ वर्द्धमान सूरि प्रथमतः चैत्यवासी परम्परा में दीक्षित हुए थे। उन्होंने जब निर्ग्रन्थ-प्रवचन १ खरततर गच्छ वृहद् गुर्वावलि, सिंघी जैन शास्त्र शिक्षा पीठ, भारतीय विद्या भवन बम्बई, वि. स. २०१३ २ "गच्छाचार विधि बड़ोदा यूनिवर्सिटी की प्रति की फोटोकापी नं. १७४२८, आचार्य श्री विनयचन्द्र ज्ञान भण्डार, जयपुर की फोटोकापी नं. ३०९ आचार्य श्री हस्तीमल जी म.सा. द्वारा गुजरात-सौराष्ट्र-कच्छ के विहार काल में प्राप्त। (१३) For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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