________________
एगंत मिच्छत्तं जिणाणमाणा अणेगंता।
एयं च वयणं गोयमा ! गिण्हाय वसति वियहि सिहिकुलेहिं व ....... सबहुमाणं इच्छियं तेहिं तेहिं दुट्ठ सोयारेहि। तओ एगवयण दोसेणं गोयमा ! निबंधिऊणाणंत संसारियत्तणं अपडिक्कमिऊणं च तस्स पाव समुदाय महाखंध मेलावगस्स मरिऊणं उववन्नो वाणमंतरेसु सो सावञ्जायरिओ ... | १
वि. सं. १०८८ - ११३५ अभयदेवसूरि नवांगीवृत्तिकार : ५. देवड्डिखमासमणजा, परंपरं भावओ वियाणेमि ।
सिढिलायारे ठविया, दव्वओ परंपरा बहुहा ॥ २ जिनदत्तसूरि (वि.सं. ११६९ सूरिपद) : गडरिपवाहओ जो, पइनयरं दीसए बहुजणेहिं । जिणगिह कारवणाईं, सुत्तविरुद्धो असुद्धो य॥ ६॥ सो होइ दव्वधम्मो, अप्पहाणो नेव निव्वुइं जणइ । सुद्धो धम्मो बीओ, महिओ पडिसोयगामीहिं ॥ ७॥ ३ लोकाशाह से लगभग साढ़े पाँच सौ वर्ष पूर्व दिगम्बर आचार्य रामसेण, (वि.सं. ९५३)
ने जिन प्रतिमा की पूजा-अर्चा को सम्यक्त्व प्रकृति मिथ्यात्व बताया : ७. सम्मत्त-पयडि मिच्छत्तं, कहियं जं जिणिंद-बिंबेसु ।
........... || ४१॥ ४ अर्थात् माथुर संघ (दिगम्बर परम्परा के संघ) की स्थापना करने वाले आचार्य रामसेण ने किसी भी जिन प्रतिमा में जिनेश्वर भ. की कल्पना करने और इस प्रकार की कल्पना के साथ प्रतिमा की वन्दना-अर्चा-पूजा करने आदि क्रियाकलापों को सम्यक्त्व-प्रकृति मिथ्यात्व की संज्ञा दी। पूर्णिमा पक्षीय श्री अकलंकदेवसूरि, वि. सं. १२४०-४४ ने जिनपति सूरि से दूसरा प्रश्न किया-"भवत्विदमेव, परं संघेन सह यात्रा क्वापि सिद्वान्ते साधूनां विधेयतया भणितास्ति, यदेवं यूयं प्रस्थिताः ? . आचार्य ! अति धृष्टा यूयं यदद्यापि (यात्रायां संघेन सह प्रचलितापि) सिद्वान्तबलमालम्बत । ... किं युष्माभिरेवैकैः
१ Studien Zum Mahanisiha Hamburg Cram. 1963 २ आगम अष्टोत्तरी ३ सन्देह दोहावलि ४ दर्शन सार (आचार्य देवसेन)
(१२) For Private & Personal Use Only
Jain Education International
www.jainelibrary.org