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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३
गये और उनका स्थान दूसरे लेते गये। चैत्य वासी, यापनीय आदि संघों के नाम ऐसे ही संघों में गिनाये जा सकते हैं।
मथुरा के कंकाली टीले की खुदाई से निकले जैन जगत् के प्राचीन इतिहास के महत्वपूर्ण अवशेष (मूर्तियां, पायागपट्ट, शिलालेख आदि) इसकी साक्षी दे रहे हैं।
यह एक संयोग की बात है कि वीर निर्वाण सम्वत् ६०६ के पास पास जैन संघ में विभेद का सूत्रपात्र हुआ और लगभग उसी समय में कुषाणवंशीय विदेशी महाराजा कनिष्क ने काश्मीर के कुडलवन नामक स्थान पर बौद्ध संगीति का प्रायोजन किया । इतिहास के अनेक विद्वानों के अभिमतानुसार कनिष्क ने सिंहासनारूढ होते ही बौद्धधर्म के प्रचार-प्रसार की दृष्टि से भगवान् बुद्ध की एक भव्य मूर्ति का निर्माण करवाया। उस बौद्ध संगीति में भगवान् बुद्ध की मूर्ति की पूजा प्रतिष्ठा के प्रश्न को लेकर बौद्ध संघ महायान और हीनयान इन दो संघों के रूप में विभक्त हो गया। जिस संघ के अनुयायियों की संख्या अत्यधिक थी वह महायान संघ कहलाया और जिस संघ के अनुयायी अल्पमत में रह गये वह हीनयान संघ कहलाया। चूंकि बुद्ध की मूर्ति का निर्माण महाराजा कनिष्क ने करवाया था और वह बुद्ध की मूर्ति की पूजा प्रतिष्ठा का प्रबल पक्षधर था अतः यह स्वाभाविक ही था कि उसका संघ (महायान संघ) प्रबल शक्तिशाली होता।
कनिष्क के राज्यारोहण के चौथे वर्ष (वीर निर्वाण संवत् ६०६) का एक मूर्ति शिलालेख कंकाली टीले से उपलब्ध हुआ है जो जैन समाज में प्रचलित मूर्ति पूजा के इतिहास से सम्बन्धित सबसे पहला और सबसे पुराना शिलालेख है।' यक्षों
और नागों की मूर्तियों को छोडकर कनिष्क सम्वत् ४ से पहले की किसी देवाधिदेव तीर्थंकर प्रभु की एक भी मूर्ति मथुरा के इस अति प्राचीन स्तूप के ध्वंसावशेष टोले की खुदाई से प्राप्त नहीं हुई है।
वीर निर्वाण सम्वत् ६०६ में जैन धर्म संघ में विभेद का उत्पन्न होना, लगभग उसी समय बौद्ध संघ में मूर्ति पूजा के प्रश्न का उठना तथा इस प्रश्न को लेकर बौद्ध संघ में भी विभेद का उत्पन्न होना और ठीक उसी समय अर्थात् वीर निर्माण सम्वत् ६०६ (कनिष्क संवत् ४) में तीर्थकर प्रभु की सर्व प्रथम निर्मित मूर्ति का कंकाली टोले से उपलब्ध होना ये तीनों ही घटनाए निम्नलिखित तीन अत्यन्त महत्वपूर्ण ऐतिहासिक घटनाओं की सबल साक्षी है :
१. कनिष्क ने सर्वप्रथम वीर निर्माण की सातवीं शताब्दी के प्रथम दशक
' जैन शिलालेख संग्रह भाग २
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