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________________ वीर सम्बत् १००० से उत्तरवर्ती प्राचार्य ] [ ३७६ उस मध्यकालीन ऐतिहासिक, सामाजिक एवं धार्मिक असहिष्णुता भरे युग के घटनाचक्र के सन्दर्भ में तटस्थ दृष्टि से विचार करने पर विदित होगा कि प्रारम्भ में इस प्रकार के संगठनों के पृथक् इकाई के रूप में गठित किये जाने के पीछे मूल कारण अधिकांशतः वे तत्कालीन विषम परिस्थितियां ही रही हैं। धर्म संघ पर पाये संकट के बादल कैसे दूर हों इसके लिये सोचे गये अथवा किये जाने वाले उपायों को लेकर संघ में उत्पन्न हुए मतभेद ही समय-समय पर हुए इस प्रकार के विघटन के प्रमुख कारण रहे हैं। धार्मिक अंध श्रद्धा का एवं तज्जनित धार्मिक असहिष्णुता का वह युग था। दूसरे धर्मों के आकर्षक आयोजनों, उनके द्वारा निर्मापित मन्दिरों, उन मन्दिरों में प्रतिदिन पूरे प्राडम्बर के साथ की जाने वाली प्रारतियों, हृदयहारी भजन कीर्तनों, चित्ताकर्षक उत्सवों महोत्सवों आदि की ओर हठात् बहुत बड़ी संख्या में खिचे जा रहे अपने धर्म संघ के अनुयायियों को देखकर जब जैन संघ के धर्म नायकों को आशंका हुई कि दूसरे धर्म संघों की ओर उमडते हुए जैन धर्मावलम्बियों के इस प्रवाह को यदि किसी समुचित उपाय से नहीं रोका गया तो जैन धर्म का अस्तित्व तक घोर संकट में पड़ सकता है, तो जैन संघ के वे श्रमण श्रेष्ठ और आचार्य भी उत्तरोत्तर क्षीण होते जा रहे अपने धर्म संघ की रक्षा की उदात्त भावना से अपने धर्म के प्रचार-प्रसार के लिये उन्हीं तौर तरीकों को, आयोजनों को, आडम्बरपूर्ण प्रदर्शनात्मक अथवा प्रभावोत्पादक कार्य-कलापों, अनुष्ठानों आदि को अपनाने के लिये विवश हुए जिनको अन्य धर्मावलम्बियों ने अपना रक्खा था। जैन संघ के जो लोग इस प्रकार के कार्य-कलापों अथवा इस प्रकार की अभिनव प्रक्रिया को अपनाने के पक्ष में थे उनका एक पृथक् संघ बन गया और जो. किसी भी मूल्य पर अपने धर्म के स्वरूप में स्खलनात्मक परिवर्तन लाने के पक्ष में नहीं हुए वे अपने मूल संघ में ही बने रहे । इस प्रकार जैन संघ की एकरूपता पृथक् पृथक् कई संघों में विभक्त होती चली गई। ___ लोक प्रवाह को दृष्टि में रखते हए जो लोग अपने धर्म को, अपने धर्मसंघ को जीवित रखने के लिये धर्म के स्वरूप में समयानुकूल परिवर्तन के पक्ष में थे, उनकी संख्या उत्तरोत्तर बढ़ती गई। इसके विपरीत जो सनातन स्वरूप को यथावत् बनाये रखने के पक्षधर थे ऐसे सुविहितों की संख्या लगातार घटती गई। वे अल्पसंख्यक बनकर रह गये । परिवर्तन की यह प्रक्रिया समय देश काल के साथसाथ तीव्रता से चलती रही जिसके परिणामस्वरूप अनेकों अभिनव संघों, सम्प्रदायों, गच्छों एवं परम्पराओं का जन्म हुआ और वे अपने-अपने समय में भौतिक आराधना की उन्नति के सर्वोच्च शिखर तक भी पहुंचे । पर कालक्रम से वे लडखड़ाये और एक समय ऐसा भी आया जब कि वे जैन जगत् के क्षितिज से तिरोहित होते Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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