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वीर निर्वाण सम्वत् १००० से उत्तरवर्ती काल की
प्राचार्य परम्परा
यह एक तथ्य है कि तीर्थ प्रवर्तन काल में भगवान महावीर ने जिस रूप में जैनधर्म का उपदेश दिया उस रूप में कालान्तर में काल प्रभाव से अनेक परिवर्तन आये।
लगभग ६०० वर्षों से भी अधिक समय तक जिस धर्म संघ ने अपनी एकरूपता को बनाये रक्खा वह फिर कालान्तर में अनेक संघों में विभिन्न इकाइयों में विभक्त क्यों हो गया ? निज कल्याण के साथ-साथ विश्व के प्राणी मात्र का कल्याण करने की दृढ़ प्रतिज्ञा के साथ जिन महान् आत्माओं ने संसार के सब प्रपंचों का, भोगोपभोगों का, घर बार का, स्वजन स्नेहियों का और सभी प्रकार की भौतिक सुख-सुविधाओं का तृणवत् त्याग कर के दुश्चर श्रमण धर्म की दीक्षा ग्रहण की, आचार्य पद के गरिमापूर्ण कर्तव्यों के निर्वहन का भाराकान्त दायित्व अपने सिर पर उठाया, उन्होंने समय-समय पर विभिन्न संघों का, विभिन्न परम्पराओं का सृजन कर प्रभू महावीर के धर्म संघ में विघटन का सूत्रपात क्यों किया ? किन कारणों से एवं किन प्रलोभनों से किया ? किन परिस्थितियों से विवश होकर किया ? विज्ञ, तत्वज्ञ एवं परम ज्ञानी ध्यानी होते हुए भी वे विवश क्यों हए ? इस प्रकार के अनेकानेक प्रश्न प्रत्येक विचारक के मन में उत्पन्न होना स्वाभाविक है। इन प्रश्नों का समाधान प्राप्त करने के लिये उन विघटनकारी प्रसंगों का निष्पक्ष दृष्टि से अध्ययन करने पर विज्ञ विचारक स्वत: उनका समाधान प्राप्त . कर सकेंगे।
इस प्रकार के प्रश्नों का समाधान ढूढते समय यदि कोई व्यक्ति यह समझे कि केवल शिथिलाचार के वशीभूत होकर, अथवा एकमात्र अपनी महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति अथवा लोक में यश प्राप्ति, संघ में सम्मान, सत्ता, प्रतिष्ठा, ऐश्वर्य, वैभव अथवा उच्च पद प्राप्ति आदि आकांक्षाओं की पूर्ति हेतु उन श्रमण श्रेष्ठों अथवा आचार्यों ने समय-समय पर अपने अपने संघों, सम्प्रदायों एवं परम्पराओं का पृथकपृथक् इकाइयों के रूप में गठन किया होगा तो एकान्तत: ऐसा समझना भी उनके साथ न्याय करना नहीं होगा।
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