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श्रमण- वेष- शास्त्र एवं आचार-विचार ]
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एक ओर यह स्थिति है तो दूसरी ओर उन्हीं के ग्रन्थों में यह भी स्पष्ट उल्लेख है कि तीर्थंकर प्रभु की दिव्य ध्वनि के आधार पर गणधरों द्वारा ग्रथित अथवा चतुर्दश पूर्वघरों या कम से कम दस पूर्वधरों द्वारा उन ग्रथित आगमों में से निर्यूढ किये गये धर्मग्रन्थ ही आगम के नाम से अभिहित किये जाने और मान्य होने के योग्य हैं । इस पर से तो आसानी से यह पूछा जा सकता है कि उनके कथनानुसार क्या ऐसा एक भी मान्य धर्मग्रन्थ उनके पास आज विद्यमान है, जो सर्वज्ञ वीतराग प्रभु की दिव्य ध्वनि के आधार पर गणधरों द्वारा ग्रथित प्रथवा चतुर्दश पूर्वधरों या दस पूर्वधरों द्वारा निर्यूढ हो ?
इसी भांति एक वर्ग में पर्वों, उत्सवों, महोत्सवों आदि के अवसर पर श्राचार्यों, उपाध्यायों अथवा श्रमरणोत्तमों द्वारा श्रमरण-श्रमणी वर्ग पर वासक्षेप की परम्परा बड़ी लोकप्रिय है । आवश्यक चूर्णिकार ने तो श्रमण भगवान् महावीर के कर कमलों द्वारा गौतमादि गरणधरों पर वासक्षेप किये जाने का उल्लेख किया है। जो लोकोत्तर वासयुक्त था। लेकिन इसका मूल ग्रागम पाठों में कहीं उल्लेख प्राप्त नहीं होता ।
श्राज जैनधर्म संघ में प्रचलित सभी सम्प्रदाय, संघ अथवा माम्नायें अपनीअपनी मान्यताओं को भगवान् महावीर द्वारा प्ररूपित विशुद्ध धर्म का रूप मानते हैं । ऐसी स्थिति में श्रमरण भगवान् महावीर द्वारा अपने तीर्थं प्रवर्तन काल में प्ररूपित श्रमणाचार का एवं श्रावक श्राविकाओं के प्रचार-विचार का मूल शुद्ध स्वरूप क्या हो सकता है इसका निर्णय भी प्राचारांग आदि श्रागमों के आधार पर ही करना चाहिये । श्रागमों में भगवान् महावीर द्वारा प्रदर्शित धर्म के वास्तविक स्वरूप एवं श्राचार-विचार की कसौटी पर जो स्वरूप एवं श्राचार-विचार खरा उतरे वही वस्तुतः जैनधर्म का वास्तविक स्वरूप एवं श्रमणों आदि का विशुद्ध श्राचार-विचार होना चाहिये ।
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