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________________ ३७६ ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - भाग ३ नोर उसी वर्ग के भट्टारक गब्दिका, सिंहासन, छत्र, चामर, भवन, भूमि, दास-दासी, धन सम्पति आदि सभी प्रकार का परिग्रह रखते हैं । दिगम्बर साधु केवल पादचारी होते हैं, तो भट्टारक रेल, वायुयान, कार प्रादि वाहनों का उपयोग करने वाले हैं । श्वेताम्बर साधु-साध्वियों का जहां तक प्रश्न है, उनमें मूर्ति पूजा में विश्वास करने वाला वर्ग मुखवस्त्रिका मुंह पर नहीं रखता, हाथ में रखता है। मान्यता की दृष्टि से श्वेताम्बर संघ की सभी सम्प्रदायों ने मुखवस्त्रिका को उपकरण के रूप से मान्य किया है । इसी वर्ग का एक उपवर्ग केवल वस्त्र के अंचल से ही मुखवस्त्रिका का काम लेता है । वे हाथ में दण्ड रखते हैं । इसके विपरीत स्थानकवासी साधु मुख पर मुखवस्त्रिका रखते हैं। रजोहरण, पात्र व पुस्तकादि के अतिरिक्त हाथ में दंड नहीं रखते । इसी परम्परा के एक वर्ग के साधु साध्वी स्थानकवासी श्रमण श्रमणियों की भांति मुख पर मुखवस्त्रिका प्रादि रखते हैं किन्तु इन दोनों वर्गों द्वारा रखी जानेवाली मुखवस्त्रिका के आकार प्रकार में थोड़ा अन्तर रहता है । P जहां तक प्रागम धर्म शास्त्रों के विलुप्त हो जाने की बात को मान्य करने वालों की बात है भारत के अन्य दर्शनों वैष्णव, शैव, वेदांतियों प्रादि धर्मों के अपौरुषेय कहे जाने वाले वेद, भाष्य, उपनिषद्, श्रुतियाँ, भागवत्, महाभारत, गीता प्रादि धर्मग्रन्थों में से एक भी धर्मग्रन्थ विलुप्त नहीं हुआ। वे विलुप्त होने की कोई बात नहीं कहते । भगवान् महावीर के समकालीन महात्मा बुद्ध ने जो बौद्ध श्रागमों का प्रणयन किया, उनके भी विलुप्त हो जाने की बात बौद्ध दर्शन वाले नहीं करते । फिर केवल जैनधर्म के दिगम्बर संघ के अनुयायी ही ऐसी बात क्यों कहते हैं ? उनके ही धर्म शास्त्र, ग्यारह अंग, उपांग, छेदसूत्र प्रादि आगम ग्रन्थ कैसे विलुप्त हो गये ? दुष्काल प्रादि के प्रकोप विलुप्त होने के कारण बताये जाते हैं तो ऐसी सूरत में भी क्या अकेले जैनियों के श्रागम ग्रन्थ ही इनसे प्रभावित हुए, जैनेतरों के नहीं हुए ? ऐसी स्थिति में इन सम्पूर्ण श्रागम शास्त्रों के विलुप्त होने की बात किसी भी विश के गले उतरना सम्भव नहीं लगता । इसके साथ ही यह प्रश्न भी उपस्थित होता है कि "नष्टे मूले कुतो शाखा " प्रर्थात् मूल के नष्ट हो जाने पर वृक्ष की शाखा प्रशाखाएं किस प्रकार अस्तित्व में रह सकती हैं ? इनकी मान्यता के अनुसार जब धर्म के मूल आधार स्तम्भ स्वरूप सर्वज्ञ प्ररणीत श्रागम ही विच्छिन्न हो गये तो प्राज की इस वर्ग की मान्यताओं का एवं इनके द्वारा मान्य ग्रन्थों का प्राधार क्या रह जाता है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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