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आगमानुसार श्रमण-वेष-धर्म-प्राचार ]
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परिणामस्वरूप छ सौ वर्षों से भी अधिक समय तक सुचारू रूप से चले आ रहे भगवान महावीर के धर्मसंघ पर एवं उसके मूल स्वरूप, प्राचार विचार व्यवहार उपासना पथ अथवा वेष आदि पर, उसके दैनन्दिन अध्यात्म साधना के विधि विधानों एवं कार्यकलापों पर क्या प्रभाव पड़ा एवं किस प्रकार विशुद्ध परम्परा का प्रवाह गौण हो गया और किस प्रकार वीर प्रभू को भाव प्रधान आध्यात्मिक उपासना का स्थान भौतिकता प्रधान द्रव्यार्चना एवं द्रव्य पूजादि ने ले लिया।
भगवान महावीर के धर्म संघ का एक वर्ग कहने लगा कि सवस्त्र को किसी भी दशा में मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती और चूकि स्त्रियां निर्वस्त्र नहीं रह सकतीं अतः वे उस भव में मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकतीं।
इसके विपरीत दुसरा वर्ग कहता रहा कि सवस्त्र भी और स्त्री भी मुक्ति प्राप्त कर सकते है।
वही पहला वर्ग कहने लगा कि द्वादशांगी का लोप सा हो गया अत: द्वादशांगी में से एक भी पागम आज अस्तित्व में नहीं रहा । इसके विपरीत दूसरा वर्ग अपनी बात कहता रहा कि द्वादशांगी में से ११ अंग अाज भी विद्यमान हैं। भले ही काल प्रभाव से उसका यत्किचित् ह्रास हुआ हो। यह वर्ग.पागमोत्तरवर्ती काल अर्थात् वीर निर्वाण सम्वत् १००० के पश्चात् प्राचार्यों द्वारा निर्मित किये गये भाष्यों, नियुक्तियों, चूणियों, अवणियों, प्रकीर्णकों प्रादि को यथावत् समग्र रूपेण मान्य नहीं करता। सिद्धान्तों से सम्बन्धित विवादास्पद विषयों में अंतिम निर्णायक एवं प्रामाणिक अंग शास्त्रों के उल्लेखों को ही मानता है, भाष्यों, चूणियों, नियुक्तियों, टीकाओं, वृत्तियों प्रादि को पूरी तरह नहीं । वहीं श्वेताम्बर परम्परा का एक वर्ग आगमों को और भाष्यों, चूणियों, नियुक्तियों, टीकानों, वृत्तियों प्रादि सभी को समान रूप से मान्य करने की बात कहता है ।
एक वर्ग नग्न मूर्तियों की पूजा प्रतिष्ठा में विश्वास करता है तो दूसरा सवस्त्र मूर्तियों की पूजा प्रतिष्ठा में । तीसरा वर्ग मूर्ति पूजा का मूलतः ही विरोध करता है । वह निरंजन निराकार की अध्यात्म उपासना में ही विश्वास रखता है।
इस तरह भगवान् महावीर के धर्म संघ में वीर निर्वाण की सातवीं शताब्दी के पश्चात् आज तक जितने संघ, गण, गच्छ, सम्प्रदाय, आम्नाय प्रादि उत्पन्न हुए, उनकी यदि कोई गणना एवं विवेचना करना चाहे तो वर्षों लग सकते हैं।
फिर इन सबके वेष का जहां तक सम्भव है इसमें भी अनेक प्रकार के विभेद हैं। दिगम्बर परम्परा के गणों गच्छों प्रादि का जहां तक प्रश्न है इसमें नग्न रहने वाले साधु सूत का एक घागा तक अपने शरीर पर धारण नहीं करते तो दूसरी
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