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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३
सब भी संयम के उपर्वहण वृद्धि के लिये हैं । वात, प्रतिकूल वायु, सूर्य का ताप, डांस मच्छर और शीत से संरक्षण करने के लिये रजोहरण आदि उपकरण को राग द्वेष रहित होकर साधु को सदा धारण करना चाहिये। प्रतिलेखना, प्रांखों से देखना, प्रस्फोटन, झाडना और प्रमार्जन रूप क्रिया में दिन और रात निरन्तर प्रमाद रहित भाजन, भांड और उपधि रूप उपकरण नीचे रखना और ग्रहण करना योग्य होता है । इस प्रकार वह सं.मी धनादि रहित, निस्संग, मोह रहित, परिग्रह रुचि से दूर, ममता रहित, स्नेह और बन्धन से रहित, सब पापों से निवृत्त, कुल्हाडी मारने वाले और चन्दन का लेप करने वाले दोनों पर समभाव रखने वाला, तृण और मरिण, मोती और पत्थर व सुवर्ण में समबुद्धि रखने वाला और मान अपमान की क्रिया में भी सम, हर्ष विषाद् रहित, उपशान्त पाप-रज वाला, अथवा विषय रति के उपशम वाला या शान्त वेगवाला, उपशान्त राग द्वेष वाला व पांच समितियों में सम्यग प्रवृत्ति वाला, सम्यग् दृष्टि और जो समस्त त्रस स्थावर जीवों में समान भाव रखता है वही श्रमण श्रुतधारक ऋजु निष्कपट व आलस्य रहित व संयमी है।
विशेषावश्यक भाष्य में भी इस विषय पर प्रकाश डाला गया है। इसके अनुसार जिनकल्पी, पडिमाधारी अथवा अभिग्रहधारी श्रमणों के लिये भी कम से कम रजोहरण और मुखवस्त्रिका रखना आवश्यक माना गया है। .
मध्यकाल में जैसे जैसे नये नये संघ व सम्प्रदायें आदि बनती गई वैसे वैसे इनकी भिन्नता की पहिचान के लिये सम्प्रदाय, संघ एवं क्षेत्र भेद से भी 'लोके लिंग प्रयोजनम्' की उक्ति के अनुसार थोड़ा बहुत वेषादि में परिवर्तन इनके द्वारा होना सम्भव है। फिर भी कुछ न कुछ अंशों में महावीर के धर्मसंघ की मौलिकता से जुड़े रहने का सभी ने प्रयत्न किया है यह निःसंकोच कहा जा सकता है ।
इन कतिपय उल्लेखों से स्पष्ट है कि श्रमण श्रमणियों का भगवान् महावीर के समय में किस प्रकार का वेष था।
पिछले प्रकरणों में चैत्यवासी, यापनीय एवं भट्टारक परम्पराओं के प्राचारविचार एवं उनके द्वारा प्रतिष्ठापित एवं प्राविष्कृत अभिनव धार्मिक विधि विधानों पर, जिनका कि मूल आगमों में कहीं उल्लेख तक नहीं है, विस्तारपूर्वक प्रकाश डालते हए तीर्थ प्रवर्तन काल से पूर्वधर काल तक के प्रभू महावीर के धर्म संघ में आये उतार चढ़ाव का संक्षिप्त विवरण दिया गया है।
मूल विषय में प्रवेश से पूर्व देवद्धि क्षमाश्रमण से उत्तरवर्ती काल में जैन संघ में पाये उतार चढ़ाव का निरूपण करने के लिये यह सब कुछ विस्तार से बताना आवश्यक था। साथ ही यह बताना आवश्यक था कि इन भिन्न प्राचारविनार अथवा मान्यताओं वाली नवोदित मध्यकालीन परम्पराओं के वर्चस्व के
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