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वीर सम्वत् १००० से उत्तरवर्ती प्राचार्य ]
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के पांचवें अथवा छठे वर्ष में बुद्ध की मूर्ति की स्थापना एवं उसकी पूजा प्रतिष्ठा प्रारम्भ की ।
२. बुद्ध की प्रतिमा की प्रतिष्ठापना के प्रश्न को लेकर बौद्ध संघ में मतभेद उत्पन्न हो गया और उसके परिणाम स्वरूप बौद्ध महासंघ महायान और हीनयान इन दो भागों में विभक्त हो गया ।
३. मथुरा के बोद्दू स्तूप ( देवनिर्मित माने जाने वाले स्तूप ) में कनिष्क संवत् ४ ( वीर निर्वाण सम्वत् ६०९) में तीर्थकर भगवान् ... की प्रथम मूर्ति रक्खी गई, जो कंकाली टीले की खुदाई के समय भारत सरकार के पुरातत्व विभाग को प्राप्त हुई । इसी को लेकर महावीर का धर्म संघ भी बौद्ध संघ की भांति दो अथवा तीन विभेदों में ( भागों में ) विभक्त हो गया ।
इस प्रकार के सुदीर्घ संक्रान्तिकालीन संकटों से भरे अन्धकारपूर्ण काल से महावीर का यह धर्मसंघ गुजरा। पर विशुद्ध मूल श्रमण परम्परा पूर्णत: विच्छिन्न फिर भी नहीं हुई । धर्म का विशुद्ध मूल स्वरूप, स्वल्प मात्रा में ही सही, बना रहा । प्राचीन जैन वांग्मय में इसके अनेक ठोस प्रमारग उपलब्ध होते हैं ।
इन्हीं के आधार पर देवद्धगरण क्षमाश्रमरण के उत्तरवर्ती काल की मूल श्रमण परम्परा के आचार्यों को प्रमुख स्थान पर रखते हुए उनके क्रमबद्ध आचार्यकाल के पश्चात् उनके साथ ही साथ युग प्रधानाचार्यों के क्रमबद्ध युगप्रधानाचार्य काल का विवरण भी हम यहां प्रस्तुत करने में सफल हो रहे हैं ।
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