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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३
उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी इच्छामि णं मंते ..... भिक्खायरियाए अडित्तए ।
(भगवती सूत्र, शतक २, उद्देशक ५, पैरा १०७) अर्थात्-उन भगवान् इन्द्रभूति गौतम गणधर ने छट्ठ के पारण के दिन प्रथम पौरुषी में स्वाध्याय कर, द्वितीय पौरुषी में ध्यान सूत्रार्थ का चिन्तन कर तृतीय पौरुषी में शारीरिक एवं मानसिक चपलता से रहित होकर असंभ्रान्त ज्ञानपूर्वक मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना की, तदनन्तर भाजनादि अर्थात् भाजनों एवं वस्त्रों की प्रतिलेखना की। प्रतिलेखना कर भाजनों की प्रमार्जना की। फिर पात्रों को लिया और पात्रों को लेकर जहां श्रमण भगवान् महावीर विराजमान थे, वहां प्राये, वहां प्राकर उन्होंने श्रमरण भगवान् महावीर की स्तुति की । उन्हें अपने पांचों अंगों को झुकाकर नमस्कार किया। वन्दना नमस्कार कर उन्होंने प्रभु से इस प्रकार निवेदन किया :--"हे प्रभो ! मैं मापसे आज्ञा प्राप्त कर प्राज छट्ठ (बेले) के पारण के दिन राजगह नगर के उच्च-नीच एवं मध्यम कुलों में भिक्षाचर्या की विधि के अनुसार भिक्षा लेने के निमित्त जाना चाहता है।"
प्रागमों के इन संक्षिप्त उल्लेखों से यह स्पष्ट है कि भगवान महावीर के समय से श्रमरण-श्रमणियों के वेष में मुखवस्त्रिका, वस्त्र पात्र आदि धर्मोंपकरणों का प्रमुख स्थान था।
वज ऋषभ नाराच संहनन एवं समचतुस्र संस्थान के धनी महा तपस्वी तथा उसी भव में मोक्षगामी महामुनि स्कन्दक प्रणगार की दुश्चर प्रति घोर तपश्चर्या का वर्णन करते हुए वस्त्र पात्र का उल्लेख भी भगवती सूत्र में माता है जो इस प्रकार है :
तए णं से खंदए अणगारे समणेणं भगवया महावीरेणं प्रभणुण्णाए समाणे हट्ट तुठे जाव नमंसित्ता गुणरयण संवच्छयं तवो कम्म उवसंपज्जित्ता णं विहरति, तं जहा :
पढम मासं चउत्थं चउत्थेणं परिणक्खित्तेणं तवो कम्मेणं दिया ठाणुक्कुडुए सूराभिमुहे पायावरण भूमिए पायावेमाणे, रत्ति वीरासणेणं प्रवाउडेण य ।" दोच्चं मासं छठें छठेणं....... रति वीरासणेणं अवाउडेण य ।
......"सोलसमं मासं चोत्तीसइमं चोत्तीसइमेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं दिया ठाणुक्कुडुए सूराभिमुहे अायावण भूमिए पायावेमाणे, रत्ति वीरासणेणं अवाउडण य ।
(भगवती सूत्र शतक २, उद्देशक १ पैरा ६२)
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