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श्रागमानुसार श्रमरण-वेष - धर्म - प्राचार ]
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बीयं । जा निग्गंथी सा चत्तारि संघाडीग्रो धारेज्जा एगं दुहत्थहुए परीषहों को सहन किया, उसे देख समझकर, मोक्ष मार्ग पर चलने वाले साधकों के लिये ये परीषह सहन करने योग्य हैं ।
मुनियों द्वारा अथवा साध्वियों द्वारा वस्त्र धारण किये जाने के सम्बन्ध में और अधिक स्पष्टीकरण करते हुए आचारांग सूत्र में जो उल्लेख किया गया है, वह इस प्रकार है
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"सेभिक्खु वा आहेस णिज्जाई वत्थाई जाइज्जा ग्रहा परिग्गहियाई वत्थाई धारिज्जा नो घोइज्जा, नो रएज्जा, नो धोयरताइं वत्थाई घारिज्जा, प्रपलिउ चमाणो गामंतरेसु प्रोमचेलिए एयं खलु वत्थधारिस्स सामग्गियं ।"
( आचारांग, द्वितीय श्र तस्कंध, अध्ययन ५, उद्देशक २ )
अर्थात् - संयमशील साधु अथवा साध्वी भगवान् द्वारा दी गई प्रज्ञा के अनुरूप निर्दोष एषणीय वस्त्र की गृहस्थ से याचना करे तथा प्राप्त होने पर उन वस्त्रों को धारण करे । किन्तु विभूषा हेतु न उन वस्त्रों को धोए न रंगे और न धोये हुए अथवा रंगे हुए वस्त्रों को पहने ही । उन अल्प परिमारण एवं अल्प मूल्य वस्त्रों को धारण कर ग्राम आदि में सुखपूर्वक विचरण करे । वस्त्रधारी मुनि का वस्त्र धारण करने सम्बन्धी यह सम्पूर्ण प्रचार है, यही उसका भिक्षुभाव है ।
" जे भिक्खु अचेले परिवुसिए तस्स णं भिक्खुस्सं एवं भवइचामि श्रहं तरणफास ग्रहियासित्तए, दंस मसग फासं श्रहियासित्तए, एगयरे अनतरे विरूवरूवे फासं श्रहिया सित्तए, हिरिपडिच्छायणं चाह नो संचाए म अहिया सित्तए, एवं से कप्पेइ कडिबन्धणं धारित्तए ।
( श्राचारांग, प्रथम श्रुतस्कंध, अध्ययन ८, उद्देशक ७ )
अर्थात् - जो अभिग्रहधारी अचेलक मुनि संयम में अवस्थित है और उसका यह अभिप्राय है अर्थात् उसके मन में यह विचार उत्पन्न होता है - " मैं तृरणस्पर्श, शीत, उष्णता, डांस-मच्छर आदि के स्पर्श, अन्य जाति के स्पर्श और नानाविध अनुकूल अथवा प्रतिकूल स्पशों को तो सहन कर सकता हूं किन्तु पूर्ण नग्न होकर लज्जा को जीतने में असमर्थ हूं।" तो ऐसी स्थिति में उस मुनि को कटिबन्ध - चोलपट्टा धारण करना कल्पता है ।
"तए गं भगवं गोयमे छट्ठखमरण पाररणगंसि पढ़माए पोरिसीए सभायं करेइ, बीयाए पोरिसीए भाणं भियाइ, तइयाए पोरिसीए प्रतुरियमचवलमसंभंते, मुहपोत्तियं पडिलेहेइ, पडिलेहेत्ता भायरणवत्थाई पडिले पडिलेहेत्ता भायरणाई पमज्जइ, पमज्जित्ता भायणाई उग्गहेड, उग्गाहेत्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ
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