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। जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३
वित्थारं, दो तिहत्थवित्थारापो, एगं चउहत्थवित्थारं। तहप्पगारेहि वत्थेहिं असन्धिज्जमाणेहिं अह पच्छा एगमेगं संसिविज्जा ।।१॥"
(आचारांग द्वितीय श्रुत स्कन्ध,पञ्चम अध्ययन)
अर्थात्-यदि कोई साधु अथवा साध्वी वस्त्र की गवेषणा करने की अभिलाषा रखे तो वे वस्त्र के सम्बन्ध में इस प्रकार जानें कि ऊन (आदि) का वस्त्र, विकलेन्द्रिय जीवों की लारों से बनाया गया रेशमी वस्त्र, सन तथा वल्कल का वस्त्र, ताड़ आदि के पत्तों से निष्पन्न वस्त्र और कपास एवं आक की तूल से बना हुआ सूती वस्त्र एवं इस तरह के अन्य वस्त्र को भी मुनि ग्रहण कर सकता है। जो साधु तरुण, बलवान्, रोगरहित और दृढ़ शरीर वाला है वह एक ही वस्त्र धारण करे, दूसरा वस्त्र धारण नहीं करे। परन्तु साध्वी चार वस्त्र (चादरें) धारण करे । उनमें एक चादर दो हाथ प्रमाण चौड़ी, दो चादरें तीन-तीन हाथ प्रमाण चौड़ी
और एक चादर चार हाथ प्रमाण चौड़ी होनी चाहिये। इस प्रकार के वस्त्र नहीं मिलने पर वह एक वस्त्र को दूसरे वस्त्र के साथ सी ले।"
"एवं खु मुणी आयाणं सयासुयक्खायघम्मे विहूयकप्पे निज्झोसइत्ता जे अचेले परिवुसिए तस्स णं भिक्खुस्स नो एवं भवइ परिजुण्णे मे वत्थे, वत्थं जाइस्सामि, सुत्तं जाइस्सामि, सूई जाइस्सामि, संघिस्सामि सीविस्सामि उक्कसिस्सामि वुक्कसिस्सामि परिहिस्सामि पाउरिणस्सामि, अदुवा तत्थ परक्कमंतं भुज्जो अचेलं तणफासा फुसंति, एगयरे विरूवरूवे फासे अहियासेइ, अचेले लाघवं आगममाणे, तवे से अभिसमन्नागए भवइ ।।१।।"
(प्राचारांग सूत्र प्रथम श्रु त स्कन्ध, अध्ययन ६, उद्देशक ३)
अर्थात्-इन पूर्वोक्त धर्मोपकरणों के अतिरिक्त उपकरणों को कर्मबन्ध का हेतु समझकर जिस मुनि ने उनका परित्याग कर दिया है, वह धर्म का पालन करने वाला है। वह प्राचारसम्पन्न अचेलक साधु सदा संयम में अवस्थित रहता है। वह प्राचारसम्पन्न अचेलक (विहूयकप्प) साधु सदा संयम में अवस्थित रहता है । उस भिक्षु को इस प्रकार का विचार नहीं होता कि मेरा वस्त्र जीर्ण हो गया है अतः मैं नये वस्त्र की याचना करू, अथवा सुई धागे की याचना करू और फटे हुए वस्त्रों को सीऊ, अथवा छोटे से बड़ा वा बड़े से छोटा करू और उससे शरीर को आवत करू । उस अचेलक अवस्था में पराक्रम करते हुए मुनि को तृणों के स्पर्श चुभते हैं, उष्ण स्पर्श, दंश मशक के स्पर्श का परीषह होता है तो वह इस प्रकार के परीषहों को सहन करता है । अचेलक भिक्षु लाघवभाव को जानता हुआ कायक्लेष तप से युक्त होता है। जिस प्रकार भगवान् ने प्रवेदित किया है, उसे समीचीनतया जानकर जिन धीर-वीर पुरुषों ने पूर्वो अथवा वर्षों तक संयम का समीचीनतया पालन करते
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