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________________ प्रागमानुसार जैन श्रमण व श्रमपी का वेष, धर्म शास्त्र एवं प्राचार विचार भगवान महावीर के धर्मसंघ में जिस प्रकार मान्यताओं की दृष्टि से अनेकरूपता दिखाई देती है वैसी ही अनेक रूपता उसके साधु साध्वियों के वेषादि में भी दिखाई देती है। __ श्वेताम्बर मूत्तिपूजक, स्थानकवासी, तेरहपन्थी आदि तथा दिगम्बर तेरहपन्थ, भट्टारक, मयूरपिच्छ, गृघ्रपिच्छ, निष्पिच्छक प्रादि में वेष की दृष्टि से न मध्यकाल में एकरूपता थी नाज है। ये सभी परम्पराएँ दावा करती हैं कि जिस वेष को उन्होंने मान्य कर रखा है वही वास्तविक जैन श्रमण व श्रमणी का वेष है । हाँ एक दो परम्पराएं ऐसी हैं जिनकी यह मान्यता है कि श्रमण वेष तथा उनके वस्त्र व पात्रों की संख्या में वीर निर्वाण की छठी शताब्दी के अन्तिम चतुर्थ चरण से लेकर सातवीं शताब्दी के प्रथम दशक के बीच किसी समय शारीरिक संहनन आदि की दृष्टि से आवश्यक समझकर थोड़ा सा परिवर्तन अवश्य किया गया था । शेष उनका वेष वही चला आ रहा है जो महावीर के शासनकाल में था। ऐसी स्थिति में वास्तविक वेष क्या होना चाहिये इसके निर्णय के लिये हमें जैन आगमों को देखना होगा। जैनागम प्राचारांग सूत्र और भगवती सूत्र में इस पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है। इनके अतिरिक्त अन्य प्रश्न व्याकरण आदि प्रागमों में भी यत्र तत्र इसके उल्लेख मिलते हैं । संक्षेप में कतिपय उल्लेख प्रसंगवशात् यहां दे रहे हैं :-- आउरं लोयमायाए, चइत्ता पूव्वसंजोगं, हिच्चा उवसम, वसित्ता बंभचेरंसि, वसु वा अणुवसु वा जारिणत्तु धम्म प्रहा तहा अहेगे तमचाइ, कुसीला वत्थं, पडिग्गहं कंवलं पायपुछरणं विउसिज्जा, अरणपु. व्वेण अणहियासेमारणा परीसहे दुरहियासए, कामे ममायमारणस्स इयारिण वा मुहत्तेण वा अपरिमारणाए भेए, एवं से अन्तराएहि कामेहि पाकेवलिएहि अवइन्ना चेए ॥१॥" (आचारांग सूत्र, प्रथमश्र त स्कन्ध, अध्ययन ६) अर्थात्-कितने ही साधक संसार को दुःखमय जान कर, पूर्वकालीन संयोग को त्यागकर, उपशम और. ब्रह्मचर्य को धारण करके और धर्म के वास्तविक स्वरूप को समझ, करके भी कालान्तर में परिषहों से घबराकर सदाचार-शील से रहित हो धर्म का पालन करने में अक्षम असमर्थ हो वे वस्त्र, पात्र, कम्बल और रजोहरण का परित्याग कर काम-भोगों की अभिलाषा करते हैं। वे तत्काल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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