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________________ समन्वय का एक ऐतिहासिक असफल प्रयास ] [ ३६७ दूसरी बात यह है कि सर्वज्ञ सर्वदर्शी तीर्थङ्कर प्रभु द्वारा प्ररूपित शाश्वत सत्य सिद्धांतों में अपवाद मार्ग का विधान करने वाला साधु सावधाचार्य के समान अनन्त काल तक भयावहा भवाटवी में भटकता रहता है। इस पाख्यान में वस्तुतः सच्चे श्रमरण के लिये चैत्य निर्माण की बात तक करना और अपवाद मार्ग का विधान करना पूर्ण रूपेण वर्जनीय है एवं अनाचरणीय है ऐसा बताया गया है । आचार्य हरिभद्र का समय वास्तव में अपवाद मार्ग के विधानों से अोतप्रोत था। इस बात का इतिहास साक्षी है। चैत्यवासियों द्वारा अंगीकार किये गये और परिचालित दसों ही नियम वस्तुतः अपवाद मार्ग के अवलम्बन से ही निर्मित किये गये थे। सावधाचार्य के इस पाख्यान के माध्यम से महानिशीथ में चैत्य निर्माण और अपवाद मार्ग का विरोध किया गया है।" महानिशीथ में उल्लिखित इन उपरि वरिणत तथ्यों पर विचार करने से यही निष्कर्ष निकलता है कि आचार्य हरिभद्र ने समन्वयकारिणी नीति का अवलम्बन लेकर भगवान् महावीर के धर्मसंघ को एकता के सूत्र में प्राबद्ध करने का एक ऐतिहासिक प्रयास किया। किन्तु उनका यह प्रयास केवल असफल ही नहीं रहा किन्तु उसके दूरगामी दुष्परिणाम भी हुए। सर्वज्ञ सर्वदर्शी प्रमु महावीर द्वारा तीर्थ प्रवर्तन काल में उपदिष्ट धर्म और विशुद्ध श्रमणाचार में विश्वास, आस्था एवं निष्ठा रखने वाले श्रमणों ने प्राचार्य हरिभद्र एवं उनके समकालीन आचार्या डाग जैन संघ के समक्ष प्रस्तुत की गई इस समन्वयवादी नीति के साथ किसी प्रकार का समझौता नहीं किया। परम्परागत धर्म के आध्यात्मिक स्वरूप और विशुद्ध श्रमणाचार के आदर्श सिद्धांतों से हटकर वे किसी के माथ कोई समझौता करने को उद्यत नहीं थे। प्राचार्य भद्रवाह के उस समन्वयवादी प्रयास का दूरगामी दुष्परिणाम यह हा कि चैत्यवासी आदि जिन द्रव्य परम्परायों द्वारा जा नये विधि-विधान धार्मिक कर्तव्यों के रूप में प्रचलित किये गये थे और उनमें से जिन कतिपय को सघ की एकता के सदुद्देश्य से प्रेरित होकर प्राचार्य हरिभद्र ने महानिशीथ मे मान्य किया था उन कार्य-कलापों एवं विधि-विधानो को मुविहित परम्परा के गच्छों गणों एवं मम्प्रदायों ने तो अपना लिया, किन्तु चैत्यवासी ग्रादि उन द्रव्य परम्परामा ने ममन्वय की दृष्टि से महानिशीथ में स्वीकृत भाव परम्परा द्वारा विहित श्रमणाचार को नहीं अपनाया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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