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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३
(क) देवगण एकान्ततः अविरत हैं इस कारण वे केवल द्रव्यस्तव
के ही पात्र हैं। (ख) श्रावक श्राविकागण विरताविरत हैं। नितान्त अविरत
देवताओं में और विरताविरत गृहस्थ मानवों में बहुत बड़ा अन्तर है । अतः वस्तुतः भावस्तव नितान्त श्रेष्ठ एवं आत्महित साधक है। यहां पर दर्शाणभद्र का दृष्टान्त पर्याप्त है। मुमुक्षुओं के लिये मुक्ति प्राप्ति का वही एक श्रेष्ठ मार्ग अनुकरणीय है जिस पर स्वयं तीर्थङ्कर प्रभुत्रों ने चलकर पाठों कर्मों को नष्ट किया और भव्य प्राणियों को जन्म जरा मृत्यु से सदा सर्वदा के लिये छुटकारा दिलाने हेतु धर्म तीर्थ
का प्रवर्तन किया। (ग) जो सर्वाधिक आत्महित साधक और श्रेष्ठ है विज साधक को
वही करना चाहिये जैसा कि तीर्थड्रारों ने किया। सजीव निकाय में से किसी भी जीव निकाय के प्राणियों की हिंसा महान् अनर्थकारिणी और अनन्त काल तक संसार में भटकाने वाली है। इस बात को सदा दृष्टि में रखते हुए जो सर्वाधिक आत्महित के साधन रूप हो, वही साधक को करना चाहिये।
(४) पञ्च मंगल प्रकरण में त्रिकाल चैत्यवंदन आदि द्रव्यग्तव का यद्यपि
विधान किया गया है, किन्तु कमलप्रभ जिनको चैत्यवासियों ने मावद्याचार्य के नाम से अभिहित करना प्रारम्भ कर दिया था उन कमलप्रभाचायं के आख्यान में श्रमणाचार का और भगवान महावीर की श्रमण परम्परा के प्रतीक श्रमण का जो वर्णन किया गया है वह बड़ा ही सजीव एवं मननीय है। इसमें दो मुख्य बातों पर विशेष वल दिया गया है। पहली बात तो यह है कि चैत्य निर्माण की वाणी मात्र से भी बात करना सच्चे श्रमण के लिये अकल्पनीय एवं अनाचरणीय है । "पाप हमारे यहां एक चातुर्मास प्रावास तक रहने को कृपा करें। आपके यहां रहने से हमारे यहां अनेक चैत्यों का निर्माण हो जायगा।" चैत्यवासियों द्वारा की गई इस प्रार्थना के उत्तर में प्राचार्य कमलप्रभ ने कहा :-- "यद्यपि यह जिनालयों की बात है। किन्तु मैं तो इस सावध कार्य का वाणी मात्र से भी अनुमोदन नहीं कर सकता।" इस आख्यान में इस तथ्य पूर्ण बात को उन नियत निवासी वेष मात्र से साधु चैत्यवासियों के सम्मुख साहस के साथ कहकर कमलप्रभ ने सर्वोत्कृष्ट पुण्य का बन्ध कर लिया।
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