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________________ ३६४ ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३ बैठकर उनके साथ गहराई से विचार-विमर्श कर विभिन्न इकाइयों में विभक्त जैन संघ को एकता के सूत्र में आबद्ध करने और धार्मिक मान्यतामों एवं कार्यकलापों में एकरूपता लाने के सदुद्देश्य से समन्वयवादी उदात्त नीति को अपनाया। विभिन्न विचारधाराओं वाले गणों अथवा गच्छों की भिन्न-भिन्न मान्यताओं को दृष्टिगत रखते हुए उन्होंने जन मानस में एक प्रकार से गहराई से घर की हई उन मान्यताओं को भी केवल इसी सदुद्देश्य से प्रेरित होकर धार्मिक कर्त्तव्य के रूप में बोझिल मन से स्वीकार किया, जो न तो शास्त्र सम्मत ही समझी गई थीं और न परम्परागत ही। दीमकों द्वारा खाई हई, सड़ी-गली एवं खंडित-विखंडित जो प्रति महानिशीथ की प्राचार्य हरिभद्र को मिली, उसका उद्धार करते समय उन्होंने किन-किन शब्दों, किन-किन पंक्तियों, किन-किन पृष्ठों और किन-किन पत्रों को नये रूप से जोड़ा और कौन-कौन से शब्द, वाक्य, पृष्ठ; पत्र आदि उस खण्डित मूल प्रति के अनुरूप थे इस बात का उल्लेख आचार्य हरिभद्र ने कहीं नहीं किया है। इस प्रकार की स्थिति में आज के किसी भी विद्वान् के लिये निर्णायक रूप में यह कहना नितान्त असम्भव है कि वर्तमान में उपलब्ध महानिशीथ का कितना व कौनसा भाग परम्परागत मूल स्वरूप वाला है और कितना व कौनसा भाग प्राचार्य हरिभद्र के द्वारा जोड़ा गया है । हाँ, यह जानने का अनुमानतः एक रास्ता अवश्य हो सकता है-और वह है आचारांग आदि शास्त्रों में समाविष्ट शाश्वत तथ्यों के कतिपय स्थलों और महानिशीथ के विभिन्न आख्यानों के विभिन्न प्रसंगों पर प्रयुक्त भाषा शैली वाले स्थलों पर क्षीर नीर विवेकपूर्ण विश्लेषणात्मक एवं अनुसंधानपरक दृष्टि से चिन्तन-मनन करने का। जिस पर से तत्त्व मर्मज्ञ सुविज्ञ जिज्ञासु इतिहासविद् यह अनुमान लगा सकें कि वर्तमान में उपलब्ध महानिशीय का अमुक-अमुक भाग वस्तुतः परम्परागत मूल वाला है और अमुक-अमुक भाग आचार्य हरिभद्र द्वारा उनके समकालीन सात प्राचार्यों की अनुमति से इसी सदुद्देश्य से प्रेरित होकर जोड़ा गया है कि येन केन प्रकारेण श्रमण भगवान् महावीर के धर्म संघ की विघटन की प्रक्रिया समाप्त हो जाय और सम्पूर्ण जैन संघ में एकरूपता स्थापित होकर वह एकता के सूत्र में आबद्ध हो जाय । वे विचारणीय आख्यान, प्रकरण अथवा स्थल मुख्यतः निम्नलिखित हैं : “(१) द्रव्यस्तव और भावस्तव पर जहाँ महानिशीथ में विचार किया गया है उसमें भावस्तव को सर्वोत्कृष्ट एवं परम स्वपर कल्याणकारी बताते हुए बड़े ही प्रभावशाली शब्दों में यह बताया गया है कि एक व्यक्ति सुमेरु तुल्य अति विशाल एवं गगनचुम्बी रत्नखचित स्वर्णनिर्मित जिन मन्दिरों से सारी पृथ्वी को आच्छादित कर दे तो भी उसका वह कार्य लव-निमेष मात्र अवधि तक किये गये भावस्तव के अनन्तवें भाग की भी तुलना नहीं कर सकता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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