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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३ का अच्छी तरह से पालन करेंगे तो इन्हीं का कल्याण होगा और यदि नहीं करेंगे तो नीची से नीची दुर्गति में इन्हीं का पतन होगा। तथापि मुझ को गच्छ सौंपा गया है मुझे गच्छाधिपति कहा जाता है। तीर्थङ्कर प्रभु ने आचार्य के ३६ गुण बताये हैं । उनमें से एक का भी अति-क्रमण प्राणान्त संकट पाने पर भी नहीं करूंगा। आगम में भी कहा गया है :-"जो इस लोक और परलोक दोनों लोकों के लिये निषिद्ध है उसका न मैं आचरण करता हूँ और न दूसरों से आचरण करवाता हूं और यदि कोई व्यक्ति इस प्रकार का आचरण करता है तो उसका में अनुमोदन भी नहीं करूंगा और न ऐसा करने की अनुमति ही दूंगा।" इस प्रकार के प्राचार्य गुणों से सम्पन्न मुझ जैसे गच्छाधिपति की बात भी ये लोग नहीं मानते हैं तो ऐसी स्थिति में मैं अपने इन शिष्यों का वेष ही उतार कर इनसे छीन ल । शास्त्र में भी इसी प्रकार का निर्देश है यथा :"जो कोई साधु अथवा साध्वी यदि वचन मात्र से भी असंयम का आचरण करे तो उसको प्राचार्य समझावें, असंयम का आचरण करने से रोकें, असंयम का आचरण न करने की प्रेरणा दें, निर्भर्त्सना पूर्ण प्रेरणा दें। यदि वे इस प्रकार आचार्य द्वारा सारणा, वारणा, प्रेरणा और निर्भर्त्सना पूर्वक प्रेरणा किये जाने के उपरान्त भी आलस्यवश अथवा कदाग्रहवश होकर आचार्य के वचन की अवहेलना करता रहे" "भगवन् ! आपकी प्राज्ञा शिरोधार्य है, जैसी आपकी आज्ञा है में वहीं करूंगा,” ऐसा न कह कर स्वेच्छानुसार उस असंयमपूर्ण कर्म से निवृत्त न हो अर्थात् असंयम का पश्चातापपूर्वक परित्याग न करे तो उस दशा में प्राचार्य उस साधु अथवा साध्वी के वेष को उतार दें।"
"गौतम! इस प्रकार प्रागमोक्त न्याय से उस प्राचार्य ने ज्यों ही उन शिष्यों में से एक शिष्य का साधुवेष उतारा, त्यों ही शेष ४६६ शिष्य विभिन्न दिशाओं में भाग खड़े हुए। तदनन्तर गौतम ! वह आचार्य अपने उन दिशो-दिशि में भागते हुए शिष्यों के पीछे-पीछे शीघ्रतापूर्वक नहीं अपितु शनैः-शनैः जाने लगा। _____ गौतम :-"भगवन् ! वह आचार्य त्वरित गति से क्यों नहीं चला ?"
___ भगवान् महावीर :--- "गौतम ! जो क्षारयुक्त भूमि से क्षारविहीन, मधुर अथवा कोमल भूमि में, मधुर भूमि से क्षारयुक्त में, कृष्णवर्णा भूमि से, पीतवर्णा भूमि में, पीतवर्णा से कृष्णवर्णा में,
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