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________________ समन्वय का एक ऐतिहासिक पर असफल प्रयास ] [ ३५५ अविवेकपूर्वक जा रहे हों। इस पर ठण्डे दिल से विचार करो। इसके साथ ही संसार में सबसे परम सारभूत सूत्र के मर्म का तुम्हें स्मरण ही होगा कि जो व्यक्ति वेइन्द्रिय प्राणी का स्वयं अपने हाथ से पैर से अथवा अन्य किसी प्रकार के उपकरण से संस्पर्श करता है उनको किलामना उपजाता है अथवा उनकी हिंसा करता है अथवा किसी दूसरे से किलामना हिंसा आदि करवाता है या हिंसा आदि करने वाले की अनुमोदना करता है तो वह उस संस्पर्श कर्म के उदयकाल में यन्त्र में पीले जाने वाले इक्ष दण्ड की तरह भीषण वेदनाओं में पीला जाता हा छः मास में उस कर्म का क्षय करता है। इसी प्रकार यदि प्रगाढ़ भाव से बेइन्द्रिय जीवों की हिंसा प्रादि करता करवाता अथवा अनुमोदन करता है तो वह व्यक्ति बारह वर्ष की अवधि तक दु:खों में इक्षु खण्ड की तरह पिलता हया उस कर्म के फल को भोगता है। इसी प्रकार अगाढ़ परितापना पहुँचाने वाला एक हजार वर्ष तक, गाढ़ परितापना पहुँचाने वाला दस हजार वर्ष तक, अगाढ़ किलामना पहुंचाने वाला एक लाख वर्ष तक, गाढ़ किलामना पहुँचाने वाला दस लाख वर्ष तक, उद्रापण करने वाला करोड़ वर्ष तक यन्त्र में पीले जाते हुए इक्षुखण्ड की तरह दुःखों में पिलता हुआ उस कर्म के फल को भोगता - रहता है। इसी प्रकार त्रीन्द्रिय आदि जीवों के सम्बन्ध में समझना चाहिये। तो इस प्रकार इन सब तथ्यों के जानकार होते हुए तुम इस प्रकार श्रमणाचार से विपरीत आचरण मत करो।" ___ "गौतम ! इस प्रकार सूत्रानुसार समझाने वाले उस आचार्य के उन समस्त पाप कर्मों का नाश करने वाले हितकर वचन को भी उन लोगों ने नहीं माना। प्राचार्य ने मन में विचार किया कि निश्चित रूप से ये दुष्ट शिष्य उन्मार्गगामी हो गये हैं। ऐसी स्थिति में इन पापमति शिष्यों के पीछे इन्हें समझाने का व्यर्थ प्रयास करता हा मैं सखी नदी में तैरने जैसा व्यर्थ प्रयास क्यों करूं ? ये लोग अपनी इच्छानुसार जहां चाहें वहाँ जाए। मुझे तो अपनी आत्मा का कल्याण करना है। मुझे इन दूसरों के कार्य से क्या प्रयोजन ? महान् पुण्य के प्रभाव से यदि थोड़ा बहुत भी मेरा परित्राण हो जाय तो उत्तम है । मुझे आगमानुसार विशुद्ध संयम का पालन करते हुए इस भव सागर को तैरना चाहिए। यह तीर्थङ्कर प्रभु का आदेश है : "यदि सम्भव हो तो आत्महित के साथ-साथ पर हित भी करना चाहिये। आत्म हित और पर हित इन दोनों में से पहले आत्म हित करना श्रेयस्कर होगा।" यदि ये लोग तप संयम आदि क्रिया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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