________________
३५४ ]
[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३
सूत्रों के रहस्य को जानते हो तो तीर्थयात्रा में जाने वालों को किस प्रकार का असंयम दोष लगता है यह तुम स्वयमेव सोच सकते हो। इस विषय में अधिक कहने की आवश्यकता नहीं है। तुम लोग जीवअजीव, संसार-स्वभाव और धर्म के मर्म को अच्छी तरह से जानने वाले हो।"
इस प्रकार आचार्य वज्र द्वारा पुनः-पुनः निषेध किये जाने के उपरान्त भी प्राचार्य वज्र की अनुपस्थिति में कराल काल से प्रेरित हो वे सभी शिष्य तीर्थयात्रा के लिये चल पड़े। तीर्थयात्रा में जाते हुए उन साधुओं को अनैषणीय आहार ग्रहण करने, कहीं वनस्पतिकाय के जीवों का संघटन संमर्दन करने, कहीं अनेक प्रकार के बीजों का प्रमर्दन करने, कहीं कीड़े-मकोड़े, चींटी आदि त्रस जीवों का संस्पर्शन संघटन, परितापन, उद्रापण करने, कहीं प्रतिक्रमण का प्रभाव, कहीं चतुर्कालिक स्वाध्याय का अभाव, तो कहीं उभयकाल प्रेक्षण, प्रमार्जन, प्रतिलेखन का उल्लंघन आदि अनेक प्रकार के दोषों का भाजन होना पड़ा। गौतम ! अधिक क्या कहा जाय, उन शिष्यों ने तीर्थयात्रा में अट्ठारह प्रकार के शीलांगों, सत्तरह प्रकार के संयम, बारह प्रकार के बाह्याभ्यन्तर तप एवं शान्ति व अहिंसा लक्षणवाले दस प्रकार के प्रणागारधर्म के परिपालन में पग-पग पर प्रमाद किया।
इससे खिन्न हो आचार्य वज्र ने विचार किया कि मेरी आज्ञा का उल्लंघन कर वे दुष्ट शिष्य विपुल असंयम के भागी होंगे और क्योंकि मैं उनका गुरु हूँ इसलिये उन सबके इस दोष के लिये मैं भी किसी न किसी रूप में उत्तरदायी माना जाऊँगा व प्रायश्चित का भागी बनूंगा। अत: मेरा यह भी कर्तव्य है कि मैं उनके पीछे-पीछे जाकर उनको इन सब दोषों से बचने के लिये सावधान करूँ-सजग करूं । इस प्रकार विचार कर आर्य वज्र अपने शिष्यों के पीछे-पीछे गये। उन्होंने अपने शिष्य समुदाय को अयतनापूर्वक जाते हुए देखा । आर्य वज्र ने अतीव मृदु मञ्जुल वारंगी में अपने शिष्यों को सम्बोधित कर कहना प्रारम्भ किया :-"उच्च कुल और निर्मल वंश में उत्पन्न हुए वत्सों ! सुनो। पंच महाव्रतधारी साधु-साध्वियों के लिये सर्वज्ञ सर्वदर्शी तीर्थङ्कर महाप्रभुत्रों ने जो विशुद्ध श्रमणाचार बताया है उसका परिपालन उपयोगपूर्वक-यतनापूर्वक उद्यम करने से ही होता है। बिना उपयोग के, बिना यतना के नहीं। ऐसी स्थिति में तुम लोग स्वेच्छाचारी बनकर श्रमणाचार की उपेक्षा कर इस प्रकार
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org