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________________ समन्वय का एक ऐतिहासिक पर असफल प्रयास | [ ३५३ अर्थात् " हे गौतम! इस ऋषभादि महावीरान्त चौबीसी से पूर्व की तेबीसवीं-चौबीसी के चौबीसवें तीर्थङ्कर के सिद्ध बुद्ध हो जाने के अनन्तर कुछ काल पश्चात् महायशस्वी महान् सत्वशाली महानुभाग यथा नाम तथागुण वाले वज्र नाम के गच्छाधिपति हुए । उनके गच्छ में पाँच सौ साधु और पन्द्रह सौ साध्वियाँ थीं । हे गौतम ! आर्य वज्र की वे शिष्याएँ प्रत्यन्त भवभीरु, प्रति विशुद्ध निर्मल अन्तःकरण वाली शांत दांत जितेन्द्रिय और अध्ययनशीला थीं । वे षड्जीव निकाय के प्राणियों को अपने प्रारणों से भी अधिक प्रिय समझती थीं । उन्होंने शास्त्र वचनानुसार अत्यन्त उग्र तपश्चरण से अपनी देह यष्टियों को शोषित कृश और शुष्क बना लिया था । तीर्थङ्करों के उपदेशानुसार वे प्रदीन मन वाली साध्वियाँ माया, मद, श्रहंकार, हास-परिहास से विहीन और सब प्रकार के लौकिक संगों से रहित थीं । वे श्रार्य वज्र के अनुशासन में रहकर श्रमरणी धर्म का समीचीन रूप से परिपालन करती थीं । किन्तु गौतम ! प्राचार्य वा के सभी साधु इस प्रकार के नहीं थे । | 1 एक दिन उन साधुनों ने प्राचार्य से निवेदन किया :"भगवन् ! यदि श्राप प्राज्ञा प्रदान करें तो हम भी तीर्थयात्रा करके चन्द्रप्रभ स्वामी को वन्दन कर और धर्मचक्र की यात्रा करके यहाँ लौट प्रायें ।" गौतम ! उन साधुनों द्वारा किये गये निवेदन के उत्तर में प्राचार्य वस्त्र ने बड़े ही घनरव गम्भीर मृदु भाषा में कहा :"सुविहित परम्परा के साधुओं के लिये यदा कदा इच्छानुसार तीर्थयात्रा के लिये जाना कल्पनीय नहीं है । उचित नहीं है । जब संघयात्रा समाप्त हो जायेगी तब मैं तुम्हें चन्द्रप्रभ स्वामी की वन्दना करवा दूँगा । मेरे निषेध का एक और भी कारण है । वह यह है कि यात्रा में जाने वाले असंयम के दोष में लिप्त हो जाते हैं । इसी कारण तीर्थयात्रा का मैं निषेध कर रहा हूँ ।" इस पर प्राचार्य वज्र के शिष्यों ने प्रश्न तीर्थयात्रा में जाने वाले श्रमरणों को किस होता है ?" इस पर आचार्य वज्र ने मन ही मन में विचार किया कि ऐसा लगता है कि ये शिष्य मेरी आज्ञा का अतिक्रमण करके यात्रा में चले जायेंगे इसी कारण मेरे द्वारा प्रतिषेध किये जाने के उपरान्त भी ये इस प्रकार प्रति प्रश्न कर रहे हैं । उन्होंने चिन्तन के पश्चात् अपने शिष्यों से कहा :- " वत्सो ! यदि तुम थोड़ा-बहुत भी Jain Education International किया :-- “भगवन् ! प्रकार का असंयम For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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