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________________ समन्वय का एक ऐतिहासिक पर असफल प्रयास ] [ ३४६ पर पुनः इसका सात बार जाप करना चाहिये। वह आराधक होता है। विघ्नोपसर्ग शांत हो जाते हैं । शूरवीर संग्राम में अपराजित होता है अर्थात् विजय को प्राप्त करता है। कल्प की पूरी सिद्धि के बाद यह विद्या मंगल प्रदायिनी क्षेमकारिणी होती है।" इस प्रकार द्रव्य परम्पराओं द्वारा प्रचलित की गई अगणित नई-नई मान्यताओं के फलस्वरूप अनेक इकाइयों में विभक्त हुए जैनसंघ को एकता के सत्र में याबद्ध करने के सदुद्देश्य से आचार्य हरिभद्र ने निशीथ के उद्धार के माध्यम से समन्वय की नीति का अनुसरण करते हए जैन धर्मसंघ में घर .की हई चैत्यवन्दन मन्त्र जाप विद्या सिद्धि और वासक्षेप आदि परिपाटियों को जैन धर्मानुयायियों के दैनिक धार्मिक कर्तव्यों में सम्मिलित कर लिया। __ द्रव्य परम्पराओं के उत्कर्ष काल में बड़ी ही धूम-धाम और आडम्बर के साथ तीर्थयात्रा करना स्वपर कल्याण एवं धर्म के उद्योत का प्रमुख साधन समझा जाने लगा था। देश के सभी हिस्सों में प्रात्म-कल्याण और धर्मोद्योत के लिए विशाल संघ यात्राएं सामूहिक तीर्थ यात्रा के रूप में यत्र तत्र यदा कदा प्रायोजित की जाती थी । जैन धर्मावलम्बियों में तीर्थों की बड़ी आडम्बरपूर्ण संघ यात्राओं के आयोजन की परिपाटी वस्तुत: एक प्रमुख धर्मकृत्य में रूप में रूढ हो गई थी। यह परिपाटी इतनी लोकप्रिय बन चकी थी कि इसके विरोध में कुछ भी सुनने के लिये उस समय का बहु संख्यक जैन जन मानस तैयार नहीं था। इस तीर्थयात्रा की परिपाटी को एक धर्मकृत्य के रूप में साधारण रूप से सुविहित परम्परा के साधुसाध्वियों के लिये अनाचरणीय सिद्ध करने वाला एक बड़ा ही सुन्दर पाख्यान महानिशीथ में दिया गया है। यह आख्यान मध्य युग से लेकर अद्यावधि जैन धर्मसंघ की विभिन्न इकाइयों में एक विवादास्पद विषय रहा है। द्रव्य परम्परामों के उत्कर्ष काल में भिन्न-भिन्न मान्यताओं वाले जैन श्रमण संघों के अधिनायक प्राचार्यगरण इस सम्बन्ध में क्या अभिमत रखते थे इस सम्बन्ध में सामूहिक रूप से प्रचलित तीर्थयात्रा पर इस आख्यान से स्पष्ट रूप से प्रकाश पड़ता है। अतः जिज्ञासुओं एवं इतिहासविदों के लाभार्थ उस पाख्यान को यहां अविकल रूप से उद्धत किया जा रहा है : "गोयमा ! णं इमाए चेव उसभ चउवीसीगाए अतीताए तेवीसइ माए चउवीसिगाए, जाव णं परिणिवूडे चउवीसइमे अरहा, ताव णं अइक्कतेणं केवइएणं कालेणं गुण निप्फन्ने कम्मसल्लमुसुसूरणे महायसे महासत्ते, महारणुभागे, सुगहिय नामधिज्जे गाम गच्छाहिवई भूए। तस्स णं पंच सयं गच्छं निन्गंथीहि विणा । निग्गंथीहि समं दो सहस्से य अहेसि । ता गोयमा ! तारो निग्गंथीयो अच्चंत परलोग भीरुयानो सुविसुद्ध निम्मलंतकरणानो, खंताओ, दंतामो, गुत्तामो, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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