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________________ ३४८ ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास--भाग ३ लम्बियों के जीवन की दैनन्दिनी के ऐसे अभिन्न अंग बन चुके थे कि जिनका निषेध करना, उस वक्तं की जनता के इनके प्रति गहरे लगाव को देखते हुए, महान से महान प्रभावक प्राचार्य के लिये भी असम्भव सा हो गया था। इसीलिये सम्भवतः महानिशीथ के उद्धार के समय अन्य सात प्राचार्यों की अनुमति से प्राचार्य हरिभद्र द्वारा जो सात आठ नये पालापक महानिशीथ में जोड़े गये बताये, उनमें से यह भी एक प्रतीत होता है। __ महानिशीथ के ऊपर उल्लिखित उद्धरण में चैत्य वन्दन, मन्त्र, जाप, विद्या, सिद्धि एवं वासक्षेप आदि का विधान करते हुए सार रूप में निम्नलिखित बातें कही गई हैं : "अपने स्वधर्मी बन्धुओं का यथाशक्ति प्रशन-पान, वस्त्रादि से हार्दिक सम्मान करना चाहिये। इस प्रकार के प्रसंग पर शास्त्रों के मर्मज्ञ गुरुषों द्वारा वासक्षेप-चूर्ण निक्षेप प्रादि के पश्चात् संसार से विरक्ति कराने वाली तथा श्रद्धा एवं संवेग उत्पन्न करने वाली धर्मदेशना करवानी चाहिये। देशनानन्तर धर्मगुरुओं द्वारा परम श्रद्धा और संवेग के रंग में रंगे हुए श्राद्ध वर्ग को जीवन भर के लिये इस प्रकार का अभिग्रह करवाना चाहिए :-"जन्म-जन्मान्तरों के पुण्य प्रताप से प्राप्त मानव जीवन को सफल करने वाले देवानुप्रियो ! आपको आज से ही जीवन पर्यन्त प्रतिदिन एकाग्रचित्त से त्रिकाल चैत्य वन्दन करना चाहिए। हे भव्यो! यही इस अशुचि से अोतप्रोत प्रशाश्वत एवं क्षणभंगुर मनुष्यता का सर्वोत्कृष्ट सार है। पूर्वाह्न (प्रातः) में प्राप लोगों को जलपान तक नहीं करना चाहिये जब तक कि चैत्यों का और साधुओं का आप वन्दन न कर लें। इसी प्रकार मध्याह्न में जब तक आप चैत्यों का वन्दन न कर लें तब तक भोजन नहीं करना चाहिये । इसी प्रकार अपराह्न में अर्थात तीसरे प्रहर में चैत्यवन्दन करना चाहिये और इस बात का पूरा ध्यान रखना चाहिये कि चैत्यवन्दन के बिना सन्ध्याकाल न बीत जाय ।" इस प्रकार का अभिग्रह-संकल्प अथवा प्रतिज्ञा जीवन भर के लिए कर लेने के पश्चात् हे गौतम ! "निट्ठारग-पारगो भविज्जासि" इस विद्या से अभिमन्त्रित सात मुठियां भरकर वासक्षेप गन्ध निक्षेप उन श्राद्धों के मस्तक पर करना चाहिये । फिर गुरु से निम्न विद्या ग्रहण करनी चाहिये :___ "भगवान् अरहन्त को नमस्कार, मुझे भगवती महाविद्या सिद्ध हो, वीर, महावीर, जयवीर, सेणवीर, वर्द्धमानवीर, जयन्त, अपराजित स्वाहा।" "इस मन्त्र को एक उपवास से सिद्ध करना चाहिये। इस विद्या की सिद्धि के उपरान्त साधक कहीं भी जाय सर्वत्र सफल होता है। उपस्थापना के समय प्राचार्य की आज्ञा से इसका सात बार जाप करना चाहिये। सर्वत्र सफलता प्राप्त होती है। कोई बड़ा काम उपस्थित होने . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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