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________________ समन्वय का एक ऐतिहासिक पर असफल प्रयास ] [ ३४७ चैत्यवन्दन आदि का अनुष्ठान करे। विना ईर्यापथिक के चैत्यवन्दन सज्झाय आदि करना उचित नहीं है। "हे भगवन् ! ईर्यापथिक का अध्ययन किस विधि से करें ?" "गौतम ! पंचमंगल महाश्रु तस्कंध के समान ही।" "प्रभो ! ईर्यापथिक का अध्ययन करने के पश्चात् किसका अध्ययन करना चाहिये?" "गौतम ! शस्तव और चैत्यवन्दन विधान का करना चाहिये।" ४. "इस प्रकार सूत्र अर्थ तदुभय चैत्यवन्दन, विधान आदि का अध्ययन करने के पश्चात् सुप्रशस्त शुभ तिथिकरण, नक्षत्र, लग्न, चंद्र, बल आदि देखकर यथाशक्ति तीर्थंकरों की पूजा, साधुवर्ग का प्रतिलाभन करने के अनन्तर अन्तःकरण को भक्ति से ओतप्रोत कर, हर्षातिरेक से रोमांचित हो, श्रद्धा, संवेग, विवेक, परम वैराग्य, अतीव निर्मल अध्यवसायों के साथ, जगद्गुरु जिनेन्द्रों की प्रतिमा में एकटक नयन जुड़ा कर, इस प्रकार की भावना के साथ कि मैं धन्य हूं, मैं पुण्यशाली हूं कि मैंने जिन वन्दन से अपने जन्म को सफल कर लिया है, हाथ जोड़कर वनस्पति, तृण, बीज, जन्तु आदि से रहित भूमि में दोनों जानु और शीष को झुकाकर निर्मल चरित्र का पालन करने वाले, सिद्धान्तों में निष्णात, अप्रमादी गुरु के साथ साधु, साध्वी, सधर्मी एवं परिजनों से परिवृत्त हो सर्वप्रथम चैत्यों का वन्दन करना चाहिये और तदनन्तर गुणाढ्य साधुओं का।" उपरिलिखित महानिशीथ के इन चारों पाठों में चैत्य वन्दन का विधान किया गया है। इससे पहले भावस्तव की महिमा के सम्बन्ध में जो भाषा एवं जो भाव महानिशीथ में व्यक्त किये गये हैं उनके साथ तुलनात्मक दृष्टि से चैत्यवन्दन के इन पाठों का अध्ययन करने से वास्तविक स्थिति क्या है यह निष्पक्ष दृष्टि से देखने पर विज्ञजनों के लिए स्पष्ट हो जाती है। महानिशीथ के १६ की संख्या में दिये गये ऊपरि लिखित पाठ से ऐसा प्रतीत होता है कि देवद्धिगरिण क्षमाश्रमण से उत्तरवर्ती काल में अथवा उससे कुछ पूर्व उद्भूत हुई चैत्यवासी आदि द्रव्य परम्पराओं के व्यापक प्रचार प्रसार एवं उत्कर्ष काल में उन द्रव्य परम्पराओं के सूत्रधारों द्वारा भगवान् महावीर के चतुर्विध धर्म संघ में चैत्यवन्दन, चैत्य-निर्माण, वासक्षेप अथवा चूर्णक्षेप आदि की परिपाटियां, इहलौकिक अभीप्सित कार्यों की सिद्धि के लिये और यहां तक कि शत्रुओं को पराजित करके संग्राम में विजय प्राप्ति की अभिलाषा आकांक्षा की पूर्ति हेतु मन्त्र जाप विद्या सिद्धि प्रादि अनुष्ठान इतने लोकप्रिय एवं बहुसंख्यक जैन धर्माव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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