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________________ ३४६ ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३ १. १५. एयाएविज्जाए सव्वगो निठारग पारगो होइ उवत्थावणाए वा गणिस्स वा अणुण्णाए सत्त वारा परिजावेयव्वा । १६. निट्ठारग पारगो होइ : उत्तिमट्ठा पडिवन्ने वा अभिमंतिज्जइ पारा हगो भवइ विग्घ विणायगा उवसमंति सूरो संगामे पविसंतो अपरा जिनो भवइ कप्प समत्तीए मंगल वहणी खेम वहणी हवइ ।" (वही महानिशीथ की प्रति, पृष्ठ ६४ पैरा २६) उपरिलिखित महानिशीथ के चारों पाठों का सारांश क्रमशः इस प्रकार है : "किस विधि से पच मंगल का 'विणोवहाण' करना चाहिये इस. प्रश्न के उत्तर में बताया गया है कि श्रेष्ठ तिथि नक्षत्रादि के दिन पांच उपवास करके विशुद्ध अन्तःकरण से विशुद्ध भक्तिपूर्वक किसी चैत्यालय में जन्तुविहीन स्थान पर बैठ कर श्री ऋषभदेव भगवान अथवा अन्य धर्म तीर्थंकर की प्रतिमा अथवा बिम्ब की ओर अपलक दृष्टि लगाये गुरु के मुख से हृदयंगम किये गये सब प्रकार के शोक, सन्ताप, व्याधि, वेदना, जन्म, जरा, मृत्यु और गर्भावास आदि सांसारिक दु:खों का समूल नाश करने वाले, संसार सागर से पार करने में पोत तुल्य सब महामन्त्रों और विद्याओं के बीज तुल्य नमो अरिहंताणं रूप पंच मंगल महाथ तस्कंध के प्रथम अध्ययन का पाठ करना चाहिये। "पंच मंगल महाश्रु तस्कंध का यथोक्त 'विनयोपधान' से अध्ययन करने के और इसके सूत्र और अर्थ दोनों का सुचारु रूपेण ज्ञान करने के पश्चात क्या सीखना चाहिए ?" गौतम के इस प्रश्न के उत्तर में भगवान् ने कहा है :-"ईर्यावहियं का अध्ययन करे, क्योंकि गमनागमनादि क्रियाओं में अनेक जीव, प्राणी, भूत, सत्वों का संस्पर्श, संघट्टन, प्रमर्दन, उद्दापन, किलामना होती है उस पाप की आलोचना शुद्धि कर लेने के पश्चात् आठों कर्मों के क्षय हेतु चैत्यवन्दन, सज्झाय व ध्यान में निमग्न होना चाहिए। यदि प्रमादवश एकेन्द्रिय आदि जीवों का संघटन, परितापन हो गया हो तो"हाहा ! मैने बहुत बुरा किया, राग, द्वेष, मोह, मिथ्यात्व, अज्ञान आदि से अन्धे होकर परलोक का बिना किसी प्रकार का ध्यान रक्खे, यह पाप किया है," इस प्रकार परम संवेग को प्राप्त हो कर अपने पाप की आलोचना निन्दा प्रायश्चित आदि करके निःशल्य होकर अशुभ कर्मों का क्षय करने के लिये आत्महितार्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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