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समन्वय का एक ऐतिहासिक परं असफल प्रयास ]
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अप्रमत्त भाव से शास्त्राज्ञा के अनुसार इस उत्तम धर्म भावस्तव के धारण के द्वारा अपना आत्म-कल्याण नहीं कर करता, वह सुदीर्घ काल तक घोरातिघोर दारुण दुखों की अविच्छिन्न दाहक परम्परा में दग्ध होता हुआ अनन्त काल तक अनन्त बार घोर संतापों से संत्रस्त एवं प्रकम्पित होता रहता है। वह दुःसह्य दुर्गन्ध, मल-मूत्र, रुधिर, मज्जा, क्षार, पित्त, वसा के कीचड़ से भरी हुई विविध योनियों के गर्भावास में घोर दुखों का भाजन बनता है। अतः संताप उद्वेग, जन्म, जरा, मृत्यु, पुनः पुनः गर्भावास आदि संसार के घोर दुखों से भयभीत होने वाले मानव को जन्म, जरा, मृत्यु प्रादि सब प्रकार के भयों को नष्ट करने वाले भावस्तव के महत्व को जानकर पूरी दृढ़ता, निष्ठा और कठोर परिश्रम के साथ उसे जीवन में ढालने के लिये प्राणप्रण से प्रयास करना चाहिये ।")T
इस प्रकार आचार्य हरिभद्र ने और उनके समकालीन कतिपय प्राचार्यों ने द्रव्यस्तव और भावस्तव के प्रश्न को लेकर अनेक अथवा अगणित पृथक्-पृथक् इकाइयों में विभक्त हुए भगवान् महावीर के धर्मसंघ को एकता के सूत्र में आबद्ध करने के उद्देश्य से महानिशीथ का उद्धार करते समय उपरिलिखित पाठ के माध्यम से प्रथम प्रयास किया। मूल पाठ के इन शब्दों से प्रत्येक विज्ञ सहज ही अनुमान लगा सकता है कि इस प्रकार के समन्वय के प्रयास में महत्व द्रव्यस्तव का अधिक रहा अथवा भावस्तव का।
इस प्रकार द्रव्यार्चना और भावार्चना की एक विवादास्पद समस्या में समाधान के लिये हरिभद्रादि पाठ प्राचार्यों ने समन्वयकारिणी इस प्रथम मान्यता को एकमत से स्वीकार किया।
दूसरी जो मान्यता रखी गई वह है चैत्यवासी परम्परा के अभ्युदय काल से ही द्रव्य परम्पराओं के माध्यम से जैन धर्म संघ में रूढ़ हुई चैत्य वन्दन की मान्यता। उपरोक्त आठों ही प्राचार्यों ने सम्भवतः इसे एक मत से स्वीकार किया। चैत्य वन्दन की मान्यता के सम्बन्ध में जो कतिपय पाठ महानिशीथ के तृतीय अध्ययन में हरिभद्र द्वारा महानिशीथ के उद्धार के समय लिखे गये, वे इस प्रकार है :
१. से भयवं कयराए विहीए पंच मंगलस्स णं विणग्रोवहाणं कायव्वं ? २. गोयमा ! इमाए विहीए पंच मंगलस्स णं विणओवहाणं कायव्वं,
तं जहा: सुपसत्थे चेव सोहणे तिथि करण मुहुत्त नक्खत जोग लग्गससिबले
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