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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३
प्रचण्ड वेदनाएं अनुभव की जाती हैं । उन वेदनाओं को, उन घोर दुखों को, उन सहस्रों सहस्र ताप संतापों को प्राणी अपनी मन्द बुद्धि के कारण और साता वेदनीय के परिणामस्वरूप ठीक उसी प्रकार नहीं जानता जिस प्रकार कि मणि मंडित स्वर्णपत्र से वेष्टित प्रस्तर शिला को अपने गले में लटकाये हुए वणिक् वधूटि उस शिला के भार को अनुभव नहीं करती। संसारवासी देवों, मनुष्यों एवं असुरों आदि में से कोई भी संसारी प्राणी मोक्ष के सुखों का ठीक उसी प्रकार वर्णन नहीं कर सकता, जिस प्रकार कि जीवन भर विकट अटवी में ही रहा हुमा एक पुलिन्द (भिल्ल) नगर के गुणों का वर्णन करने में असमर्थ-अक्षम रहता है। उसे पुण्ण (पूर्ण और पुण्य दोनों का प्राकृत रूप) कैसे कहा जा सकता है, जिसका कि सुदीर्घ काल से ही सही पर एक न एक दिन अन्त होना सुनिश्चित है और वस्तुत: जिसमें विरसता (कटुता दुखानुभूति के भाव), अवसान (अन्त-समाप्ति) और भव भ्रमरण की श्रृंखला का बन्ध कराने वाली शक्ति विद्यमान है। देव विमान से च्यवनकाल में वहां से च्युत होने वाला प्राणी देव विमान के वैभव और देवलोक से च्यवन की बात सोचकर गहन चिन्ता में मग्न हो जाता है। उसका हृदय इस प्रकार आकुल व्याकुल हो जाता है मानो उसके सौ-सौ टुकड़े हो रहे हों । नरक योनि में अति दुःसह्य एवं अति कठोर और घोर जो दुख है, उसका वर्णन कोई व्यक्ति कोटि-कोटि वर्षों की आयुष्य पाकर भी नहीं कर सकता। इसलिये हे गौतम ! दस प्रकार के धर्म, घोर तपश्चरण और संयम के परिपालन का ही नाम भावस्तव है। वस्तुत: इस भावस्तव से ही अक्षय अव्याबाध शाश्वत सुख की प्राप्ति की जा सकती है । गौतम ! उस भावस्तव के करने का सौभाग्य नरक, तिर्यन्च और देव भवों में तथा इन्द्र पद प्राप्त कर लेने पर भी प्राप्त नहीं किया जा सकता। यह सौभाग्य तो केवल मनुष्य भव में ही प्राप्त किया जा सकता है । गौतम! संयमावरण नाम कर्म के विपुल क्षय होने पर प्राणी को भावस्तव करने की योग्यता प्राप्त होती है । जन्मजन्मान्तरों में संचित गुरुतर पुण्य के प्रभाव से संप्राप्त मानव भव के बिना उत्तम धर्म-भावस्तव प्राप्त नहीं होता। शल्य और दम्भ से पूर्णतः रहित, त्रिकरण-त्रियोग से विशुद्ध रूपेण आचरित उस भावस्तव अथवा उत्तम धर्म के कृपा प्रसाद से ही प्राणी तीनों लोकों के मूर्धन्य अग्रभाग में अतुल अनन्त शाश्वत शिव सुख प्राप्त करता है। जन्म-जन्मान्तरों में संचित आठों पापकर्मों की उत्तुंग अपार राशियों को भस्मावशिष्ट करने के लिये विवेक आदि से संयुक्त मनुष्य जन्म को पाकर भी जो प्राणी पाश्रवों के निरोध के साथ
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