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________________ ३३८ ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३ सावद्य कर्मों का त्याग नहीं किया है, उन विरताविरतों के लिये यह द्रव्यस्तव उपयुक्त है किन्तु जिन्होंने सम्पूर्ण सावध कर्मों का त्याग कर एवं संयम ग्रहण कर संयम के महत्व को जान लिया है, उनके लिये पुष्पादिक कभी नहीं कल्पते । हे गौतम ! यह कहा जाता है कि ३२ इन्द्रों ने भी पुष्पादिक से पूजा की इसलिये जिस किसी भी तरह हो द्रव्य पूजा और भाव पूजा दोनों ही करनी चाहिये । गौतम ! वस्तुत: यहां उन्हें वास्तविक तत्व का बोध नहीं है। वास्तविकता यह है कि उन देव देवेन्द्रों के लिये भावस्तव असम्भव है। भावअर्चना वस्तुत: अत्युत्तम है, यह तो दशार्ण भद्र के दृष्टान्त से प्रकट ही है। जिस प्रकार दशार्णभद्र का उदाहरण है, उसी प्रकार चक्रवर्ती, भानु, शशिदत्त और द्रमुक आदि के दृष्टान्त समझने चाहिये । गोतम ! देवेन्द्रों ने अपनी सम्पूर्ण ऋद्धि के साथ भक्तिपूर्वक तीर्थकरों की पूजा की, उनका सत्कार किया। वह सब कुछ क्या सभी प्रकार के सावद्य कर्मों का त्रिविध त्रिकरण से त्याग करने वाले विरतों द्वारा किया गया था ? अथवा सर्वथा सदा सभी अवस्थाओं में अविरत लोगों द्वारा किया गया था ! भगवन् ! देवेन्द्रों ने जो अपूर्व भक्ति के साथ तीर्थंकरों का पूजा सत्कार किया, वह सब भांति सभी दशाओं में अविरत प्राणियों द्वारा किया गया पूजा सत्कार था। तो हे गौतम ! यदि ऐसी बात है तो इस तथ्य को निःसंशय होकर हृदयंगम करो कि देशविरत और अविरत इन दोनों में भी कितना अन्तर है ? इस बात को समझ कर हे गौतम ! सभी तीर्थकरों ने स्वयं जो आचरण किया है, सम्पूर्ण आठों कर्मों को समूल नष्ट करने वाले उस भावस्तव का ही अनुष्ठान करना चाहिये । गौतम ! जहां अर्थात् जिस द्रव्यार्चना में गमनागमन काल में पृथ्वी अप, तेज, वायु और वनस्पति एवं अस इन षड् जीव निकाय के प्राणियों की स्पर्श, मर्दन एवं हिंसा रूप जो पाप कर्म होते हैं, उस कार्य में स्व तथा पर के हित में निरत रहने वाले व्यक्ति मन मात्र से भी प्रवृत्ति नहीं करते। इसलिये स्व पर हित में निरत रहने वाले विज्ञों को सभी कार्यों में जो श्रेष्ठ हो, उसी को चुनना चाहिये तथा जो कार्य परम सारभूत और सर्वोत्तम विशेषताओं से युक्त हो, उसी कार्य को करना चाहिये।" वह सारभूत सर्वोत्तम कार्य इस प्रकार है "पर्वताधिराज सुमेरु पर्वत के उच्चतम शिखर के सन्निभ गगनस्पर्शी विशुद्ध स्वर्ण से निर्मित, सभी भांति की उत्कृष्ट कोटि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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