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समन्वय का एक ऐतिहासिक पर असफल प्रयास ]
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द्रव्यार्चना है । तो गौतम ! निश्चित रूप से जो कल्याणकारी है वह इस प्रकार है :
(उग्र विहार भावार्चन है और जिन पूजा यह द्रव्यार्चन है तथा पहली उग्र विहार रूप भाव अर्चना यतियों के लिए है और गृहस्थों के लिये दोनों ही प्रकार की अर्चना कही गई है, पर इन में पहली भाव अर्चना ही प्रशस्त है।
___ गौतम ! यहां सिद्धान्तों के मर्म से अनभिज्ञ अनेक ऐसे साधु जो विहार का परित्याग कर नियत निवास करने वाले हैं, परलोक में उनका कैसा घोर अहित होगा, इस पर विचार न करके स्वेच्छाचारी बने हुए ऋद्धि, रस, साता, गर्व-मूच्छित हैं और जो राग, द्वेष, मोह, अहंकार और ममत्व आदि के दास बने हुए हैं, जो संयम और सद्धर्म से परांग्मुख हैं, निर्दय निस्त्रिश, घृणास्पद, क्रूर, पापाचार-परायण, एकान्ततः प्रति चंड, रौद्र एवं क्रूर मनोभाव वाले मिथ्या दृष्टि लोग सब प्रकार के सावध योगों का संग, प्रारम्भपरिग्रह जीवन भर त्रिकरण त्रियोग से त्याग कर भी द्रव्य रूप से संयम ग्रहण किये हुए हैं, न कि भाव रूप से, जो नाम मात्र के अरणगार हैं, वे यह कहते हुए उन्मार्ग में प्रवृत्त होते हैं कि हम अर्हन्त भगवन्तों का गन्ध, माला, प्रदीप, स्नान, उपलेपन, सुन्दर, वस्त्र, बलि, धूप मादि से पूजा सत्कार करते हुए और प्रतिदिन अभ्यर्चन करते हुए धर्म तीर्थ का उत्थान करते हैं । हे गौतम ! उन लोगों का यह कथन वस्तुतः सत्य नहीं है । क्योंकि उनके इस प्रकार के कार्य कलापों में असंयम का बाहुल्य है। प्रसंयम की बहुलता से स्थल कर्मों का आश्रव होता है और स्थूल कर्मों के प्राश्रव से अति स्थूल कर्म प्रकृतियों का बन्ध और सब प्रकार के सावध कर्मों के त्यागी साधुनों के व्रत का भंग होता है। व्रत भंग से तीर्थंकरों की प्राज्ञा का अतिक्रमण होता है। आज्ञा के अतिक्रम से उन्मार्ग गामिता उत्पन्न होती है। उन्मार्ग गामी हो जाने से समग्र अच्छाइयों का लोप हो जाता है। सब प्रकार की अच्छाइयों के लोप हो जाने से यतियों की बड़ी आसातना होती है। यतियों की प्रासातना से वह अर्हन्तों की आज्ञा का अतिक्रमण करने वाला साधु अनन्त काल तक संसार में परिभ्रमण करता रहता है।
द्रव्यस्तव और भावस्तव, इनमें द्रव्यस्तव बड़ा गुणकारी है-इस प्रकार की बुद्धि अप्रबुद्ध व्यक्तियों में होती है क्योंकि हे गौतम ! सर्वथा षड्जीव निकाय का हित करना उचित है। जिन्होंने सम्पूर्ण
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