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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - भाग ३
७० सुमहं अच्चंत-पहीणे सुसंजमावरण-नामघेज्जेसु । - ताहे गोयम ! पाणी भावत्थय-जोगयं उवेइ ।। ७१ जम्मंतर संचिय गरुय पुण्ण पन्भार संविढत्तेण ।
माणूसजम्मेण विणा नो लन्भइ उत्तमं धम्मं ।।
७२ जस्साणुभावप्रो सुचरियस्स निसल्ल दंभ रहियस्स ।
लब्भइ अउलमरणंतं अक्खय सोक्खं तिलोयग्गे ॥ ७३ तं बहु भव संचिय तुग-पाव-कम्मट्ठ-रासि-दहणठें ।
लद्ध माणुसजम्मं विवेगमादिहिं संजुत्तं ।।
७४ जो न कुणइ अत्तहियं सुयाणुसारेण पासवनिरोहं ।
चत्तिग सीलंग-सहस्स-धारणेणं तु अपमत्तो ।। ७५ सो दीहर अव्वोच्छिन्न घोर दुक्खग्गि दाव पज्जलियो ।
उब्वेविय संतत्तो प्रणंतहुत्तो सुबहुकालं ॥ ७६ दुग्गंधामेझ चिलीण-खार-पित्तोज्झ-सिंभ-पडहत्थे ।
वस जलुस पूय दुद्दिण चिलिच्चिले रुहिर चिक्खल्ले ।। ७७ कढ कढ कढंत चल चल चलस्स तलतलतलस्स रझंतो।
संपिडियंगमंगो जोणि जोरिण वास गब्भे ।
एक्केक्क गम्भवासे सुजतियंगो पुणरवि भमेज्जा ।। ७८ ता संताव उव्वेवग जम्म जरा मरण गम्भवासाइ ।।
संसारिय दुक्खाणं विचित्तरूवारण भीएणं । ७६ भावत्थवाणुभावं असेस भव भय खयंकरं नाउ ।
तत्थ एव महंताभ उज्झमेणं दढं प्रच्चंतं पयइयव्वं ।।
८० इयं विज्जाहर किन्नर नरेण ससुरासुरेण वि जगेण ।
संथव्वते विहत्थवेहि ते तिहयणेक्कीसे ।। गोयमा ! धम्म तित्थंकरे जिणे अरिहंते ति ।।
. अर्थात्-"उन जगद्गुरु त्रिलोक पूज्य धर्म तीर्थंकरों की अर्चना दो प्रकार की कही गई है। एक भाव अर्चना और दूसरी द्रव्यअर्चना । (चरित्र का पालन, घोर कठोर उग्र तप का प्राचरण-यह भाव अर्चना है और पूजा सत्कार करना एवं दान देना आदि
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