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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३ देवद्धिगणि क्षमाश्रमण के उत्तरवर्ती काल के प्रारम्भ से लेकर अर्थात चैत्यवासी
आदि द्रव्य परम्परात्रों के अभ्युदयकाल से लेकर अद्यावधि पर्यन्त बड़े चर्चा के विषय रहे हैं । इस विषय में महानिशीथ सूत्र में बड़े सुन्दर ढंग से प्रकाश डाला गया है । वह मूल प्रकरण सारांश के साथ यहां अविकल रूप से दिया जा रहा है।
(१६)
३४ तेसि य तिलोग महियाण धम्म तित्थंकराण जग गुरूरणं ।
भावच्चण दव्वच्चरण भेदेन दुह अच्चरण भरिणयं ॥ ३५ भावच्चरण चरित्तारणहारण कठ्ठग्ग घोर तव चरणं । दव्वच्चरण विरयाविरय सील-पूया-सक्कार-दाणादि ।।
ता गोयमा । णं एस एत्थ परमत्थे, तं जहाः ३६ भावच्चरणं उग्ग विहारया य दवच्चणं तु जिण-पूया ।
पढमा जतीण, दोन्नि वि गिहीण, पढमाच्चिय पसत्था ।
(२)
(१७) (१) एत्थं च गोयमा ! केइ अमुरिणय समय सम्भावे, (अव) प्रोसन्न
विहारी, नीय वासियो, अदिट्ठ परलोग पच्चवाए, सयं मति, इड्ढि रस साय गारवाइ मुच्छिए राग दोस मोहाहंकार ममिकाराइसु पडिबद्ध, कसिण संजय सद्धम्म परंमुहे, निद्दय नित्तिस निग्घिरण अकलुण निक्किवे, पावायरणेक्क अभिनिविट्ठ बुद्धि एगतेणं अइचंड
रोद्द कूराभिग्गहिय मिच्छदिट्ठिणो, (३) कय सव्व सावज्ज जोग पच्चक्खाण विप्पमुक्कासेस संगारंभ
परिग्गहे तिविहेणं पडिवन्न सामाइए य दव्वत्ताए न भावत्ताए नाममेत्त मुंडे, अरणगारे महव्वयधारी समणे वि भवित्ताणं
एवं मन्नमाणे सव्वहा उम्मग्गं पवत्तंति, (४) जहा किल “अम्हे अरहताणं भगवंताणं गंध मल्ल पदीव संमज्ज
गोवलेवेण विचित्त वत्थ बलि धूयाइएहिं पूयासक्कारेहिं अणु
दियहं अभच्चणं पकुव्वाणा तित्थुच्छप्पणं करेमो।" (५) तं च नो रणं "तह" त्ति गोयमा ! समणुजाणेज्जा।
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