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समन्वय का एक ऐतिहासिक पर असफल प्रयास ]
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उपर्युल्लिखित इन सब उद्धरणों से यह स्पष्टतः प्रतीत होता है कि आचार्य श्री हरिभद्र ने अपने समय के प्रसिद्ध एवं जनप्रिय सात अन्य विद्वान् आचार्यों के साथ विचार-विमर्श कर दीमकों द्वारा खाई हुई अथवा सड़ी-गली महानिशीथ सूत्र की प्रति में कुछ नये आलापक नये वाक्य नये शब्द और नये पृष्ठ जोड़कर उस महानिशीथ का उद्धार किया। जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है महानिशीथ के इस उद्धार के पीछे मूल उद्देश्य विभिन्न इकाइयों में विभक्त जैनधर्मसंघ को एकता के सूत्र में आबद्ध करना था। अपने इस प्रयास में प्राचार्य श्री हरिभद्र और उनके समय के, समकालीन विभिन्न सम्प्रदायों के, मान्यताओं के प्राचार्यों ने ऐसी धार्मिक क्रियाओं को भी जैन धर्मावलम्बियों की धार्मिक दैनन्दिनी में जोड़ने का प्रयास किया, जिनका कि मूल प्राममों में सर्वथा निषेध किया गया है। उनके द्वारा ऐसा किये जाने के पीछे क्या-क्या कारण रहे होंगे, उन कारणों के सम्बन्ध में निश्चित रूप से तो कुछ भी नहीं कहा जा सकता पर अनुमान यही किया जाता है कि जो द्रव्य परम्पराओं द्वारा प्रचालित द्वध्यार्चना के जो-जो विधि-विधान धार्मिक रीतिरिवाजों के रूप में जन-जन के मानस में घर कर गये थे अथवा जो विधि-विधान बहसंख्यक जैन धर्मावलम्बियों के जीवन में रूढ़ हो गये थे और जिनको हटाना अथवा जिनका खुले शब्दों में विरोध करना उन प्राचार्यों को सम्भव प्रतीत नहीं हो रहा था, उन कतिपय धार्मिक रीति-रिवाजों को, उन धार्मिक दैनिक कर्तव्यों को उन्होंने धर्म के अभिन्न अंग के रूप में मान्य कर लिया। ऐसा करने में उनके अन्तर्मन पर सम्भवतः काफी बोझ पड़ा, ऐसा आभास महानिशीथ की तद्-तद् प्रसंगिनी भाषा से होता है। उदाहरण के रूप में लिया जाय तो पंच मंगल प्रकरण में चैत्यवन्दन का अविरत गृहस्थ के लिये विधान किया है, द्रव्य पूजा का विधान किया गया है किन्तु दूसरी ओर सावद्याचार्य के नाम से चैत्यवासियों द्वारा अभिहित (सम्बोधित) किये जाने वाले प्राचार्य कुवलयप्रभ के प्रकरण में चैत्य निर्माण के कार्य को ऐसा सावध कार्य बताया गया है जिसका एक चरित्रनिष्ठ पंच महाव्रतधारी साधु वचनमात्र से भी अनुमोदन नहीं कर सकता। इस प्रकार के अनेक प्रसंग हैं, जिनसे यह स्पष्ट रूप से प्रकट होता है कि जिन कार्यों का एक अोर साधारण रूप से विधान किया गया है तो दूसरी ओर उन्हीं बातों का बड़ी शक्तिशाली निर्णायक भाषा में निषेध किया गया है ।
महानिशीथ सूत्र में जो इस प्रकार के प्रकरण उल्लिखित हैं, उनस तो ऐसा ही प्रतीत होता है कि उनके द्वारा द्रव्य परम्पराओं का, मूल भावपरम्परा के साथ समन्वय करने का प्रयास किया गया है। उन सब पर यहां प्रकाश डाला जा रहा है :
द्रव्य परम्परा और भाव परम्परा, द्रव्य पूजा और भाव पूजा, द्रव्यस्तव और भावस्तव अथवा द्रव्य अर्चना और भाव अर्चना-ये कतिपय विषय आर्य
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