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________________ ३३० ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास भाग -- (७) ताहिं च जत्य जत्थ संबंधारगुलग्गं संबुज्झइ, तत्थ तत्थ बहुएहि सुयहरेहिं संमिलिउणं संगोवंग दुवालस अंगाओ मुयसमुद्दास्रो अन्न-मन्न- अंग-उवंगसुयक्खंघ-प्रज्झयण उद्देसगारणं समुच्चिरिणऊण किंचि किंचि संवज्झमाणं एत्थं लिहियं, नउण सक कव्वं कथं ति । ( महानिशीथ, तीसरा अध्ययन, पृष्ठ ७१, पैरा ४६ - हेम्बर्ग (जर्मनी) से सन् १९६३ में प्रकाशित । (२) एयस्स य कुलिहिय दोसो न दायव्वो सुयहरेहिं । किंतु जो चेव एयस्स पुण्वायरिसो ग्रासि तत्थ एव कत्थइ सिलोगो, कत्थइ सिलोगद्ध, कत्थइ पयक्खरं, कत्थइ प्रक्खर, पंतिया, कत्थइ पष्णगा पुत्थियं कत्थइ बे तिन्नि पन्नगारिण एवमाइ बहु गन्धं परिगलियं ति । (वही, हेम्बर्ग में प्रकाशित महानिशीथ पृष्ठ ३० पैरा २८ ) अर्थात् - " इस महानिशीथ में कहीं-कहीं जो वाचना भेद दृष्टिगोचर होता है, उसके लिये सिद्धान्तों और शास्त्रों के मर्मज्ञों को चाहिये कि वे दोष न दें क्योंकि इस ग्रन्थ की जो मूल आदर्श प्रति थी, उसमें बहुत सा अंश नष्ट हो गया था । जिन जिन स्थलों पर नष्ट हुए मूल पाठ के स्थान पर जो कुछ सुसम्बद्ध और समुचित पाठ प्रतीत होता था, इस प्रकार के पाठ स्थान-स्थान पर बहुत से शास्त्रज्ञ निष्णात श्रुतघरों ने एक साथ बैठकर एवं विचार विमर्श करके श्रुतसमुद्र के श्रर्थात् द्वादशांगी, अन्यान्य अंग, उपांग, श्रुतस्कन्ध, अध्ययन एवं उद्देशकों से चुनचुन कर उन रिक्त स्थलों में उससे सम्बन्धित नया पाठ लिख दिया । वह कोई उनकी स्वतन्त्र कृति नहीं थी । श्रुतधरों को इस प्रकार का दोष नहीं देना चाहिये कि इस महानिशीथ के पाठों को समुचित रूप में नहीं लिखा गया है, बुरे ढंग से लिखा गया है । क्योंकि इसकी जो मूल आदर्श प्रति थी, उसमें कहीं श्लोक, कहीं श्लोकाद्ध, कहीं पद, कहीं अक्षर, कहीं पंक्तियां, कहीं पृष्ठ और कहीं-कहीं दो-तीन पन्ने नष्ट हो गये थे । इस प्रकार ग्रन्थ का बहुत-सा भाग गल गया था ।" घाणेराव सादड़ी ( राजस्थान ) से प्राप्त हुई महानिशीथ की हस्तलिखित प्रति के पृष्ठ २४ ( १ ) के दक्षिणी हाशिये में निम्नलिखित पाठ लिखा हुआ मिलता है : :-- " मूल सूत्र में लिख्यो जिहां पद, आलावा, (आलापक) न संपजे तिहां सूत्र घरं कुलिरूया नो दोष न देवो जे भरणी (इसलिये कि ) ए सूत्र ना घरणां पानां सड्या देखी भवजीव निमित्तं आठ श्राचार्ये हरिभद्र सूर, सिद्धसेन दिवाकर, वृद्धवादी, जक्खसैरण (यक्षसेन), देवगुप्त, जिनदासगरिण, जसवद्धरण और नेमिचन्द्र सात-आठ नवा आलावा (आलापक) घाल्या छे ।” Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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