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समन्वय का एक ऐतिहासिक पर असफल प्रयास ]
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संवत् ७५७ से ८२७ के बीच हुए प्राचार्य हरिभद्र सूरि ने इसका शोधन परिवर्द्धन पुनरालेखन श्रादि के रूप में पुनरुद्धार किया । '
महानिशीथ की उस समय में उपलब्ध एक मात्र प्रति के बहुत से स्थल दीमकों द्वारा खा लिये गये थे । कहीं पंक्तियां, कहीं अक्षर, कहीं पृष्ठ तो कहीं पूरे के पूरे तीन-तीन पत्र नष्ट हो गये थे । उस सड़ी-गली और दीमकों द्वारा खाई हुई महानिशीथ की प्रति के उद्धार के पीछे आचार्य हरिभद्र का और उनके साथ मधुर सम्बन्ध रखने वाले विभिन्न परम्परानों के कतिपय श्राचार्यों का मूल उद्देश्य जैन धर्म संघ में उत्तरोत्तर बढ़ते हुए मान्यता भेद को यथा सम्भव मिटाना अथवा कम करना और अनेक संघों, गरणों, गच्छों अथवा सम्प्रदायों के रूप में छिन्न-भिन्न हुए धर्मसंघ में एक समान मान्यताएं प्रचलित कर समन्वय स्थापित करने का था । अपने इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये हरिभद्र सूरि ने और तत्कालीन विभिन्न संघों के आचार्यों ने महानिशीथ के मूल पाठ में अनेक नवीन आलापक पृष्ठ के पृष्ठ भी जोड़े हैं, यह महानिशीथ के निम्नलिखित पाठों से स्वतः ही सिद्ध होता है ।
(१) तहा प्रसन्न सु जाणे नेत्थं लिहिज्जइ ।
(२) पासत्थे नाणमादीरणं ।
(३) सच्छन्दे उस्सुत्तुमग्गगामी ।
(४) सबले नेत्थं लिहिज्जति गंथ वित्थरभया ।
(५) भगवया उरण एत्थं पत्थावे कुसीलादी महया पबंघेणं पन्नविए ।
(६) एत्थं च जा जा कत्थइ अन्नन्न वायरणा सा सुमुणिय- समय-सारेहिं न पोसेयव्वा, जो मूलादरिसे चैव बहुं गंथं विप्पणट्ठं ।
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एत्थ य जत्थ पयं परणानुलग्गं सुत्तालावगं न संपज्जइ, तत्थ तत्थ सुयहरेहिं कुलिहिय दोसो न दायव्वो त्ति ।
किन्तु जो सो एयस्सा अचित चिन्तामरिण कप्प भूयस्स महानिसीह सुयक्खंघस्स पुव्वायरिसो ग्रासि, तहि चेव खंडाखंडीए उद्दे हियाइएहि हेऊहि बहवे पण्णगा परिसडिया । तत्था वि " प्रच्चंत सुमह" प्रत्थाइसयं ति इमं महानिसीह सुयक्खंधं कसिरग पवयरणस्स परम सारभूयं परं तत्तं महत्थं "त्ति कलिऊणं" ।
पवरण वच्छलत्तणेणं बहु भव्व सत्तोवयारियं च नाडं तहा य प्राय हियट्ठाए प्रायरिय हरिभद्दे गं जं तत्थ प्रायरिसे दिट्ठ तं सव्वं स मतीए साहिऊरणं लिहियं ति । अन्नेहि पिसिद्धसे दिवाकर वुड्ढवाई जक्खसेण देवगुत्त जसवद्धरण खमासमरणसीस रविगुत्त नेमिचंद जिनदास गरिण खमग सव्व रिसि पमुहेहिं जुगप्पहारण सुयह रेहि हुन्न इति ।
( महानिशीथ जैतारण से प्राप्त हस्तलिखित प्रति )
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