________________
३२८ ]]
[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३
मुंह देखना पड़ा तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। उनकी असफलता का मूल कारण यह था कि द्रव्य परम्पराओं के समर्थकों ने न केवल सत्ताधीशों को ही अपितु जन मानस को भी पूर्ण रूपेण प्रभावित कर अपनी ओर कर लिया था। द्रव्य परम्पराओं के संचालकों द्वारा प्रचचन में लाये हुए चित्ताकर्षक धार्मिक आयोजनों के परिणामस्वरूप इन परम्पराओं द्वारा प्रचलित की गई सभी मान्यताएं लोक में धर्म के नाम पर रूढ़ हो गई थी। इसके साथ ही उन क्रियोद्धारकों के असफल होने का दूसरा प्रमुख कारण यह था कि इन शक्तिशाली बनी हई द्रव्य परम्पराओं के अनुयायी राजाओं, सामन्तों, कोट्याधीशों, व्यापारियों आदि के द्वारा जन साधारण को जो प्रलोभन उस समय प्राप्त थे, उस प्रकार के प्रलोभन देने की स्थिति में ये नये क्रियोद्धारक पूर्णतः अक्षम थे।
भाव परम्परा की पुनः स्थापना के लिये समय-समय पर मुमुक्षुत्रों द्वारा किये गये प्रयासों के पुनः पुनः असफल हो जाने के उपरान्त भी भाव परम्परा के पक्षधर साधु साध्वी श्रावक श्राविका वर्ग हतोत्साहित नहीं हुआ। भाव परम्परा को पुनः स्थापित करने और द्रव्य परम्परा को निसत्व एवं निर्बल करने के प्रयास अध्यात्मपरक प्रात्मार्थी मुमुक्षुओं द्वारा समय-समय पर किये ही जाते रहे।
"महानिशीथ सूत्र" के अथ से इति तक अध्ययन व पर्यालोचन से यह प्रकट होता है कि भगवान महावीर द्वारा प्ररूपित जैन धर्म के मूल स्वरूप में आस्था रखने वाला श्रमण वर्ग एवं साधक वर्ग वस्तुतः जैन धर्म के स्वरूप में और श्रमणाचार में द्रव्य परम्पराओं द्वारा लाई गई विकृतियों से बड़ा चिन्तित रहा। धर्म के मूल स्वरूप में उत्तरोत्तर बढ़ती गई विकृतियों और श्रमण वर्ग में उत्तरोत्तर बढ़ता हुमा शिथिलाचार यह सब कुछ उन प्राचार्यों श्रमणों और साधुनों के हृदय में शल्य की तरह खटकता रहा।
.. महानिशीथ के पर्यालोचन से ऐसा प्रतीत होता है कि विभिन्न इकाइयों में विभक्त धर्म संघ में उत्तरोत्तर बढ़ते हुए मान्यता भेदों पर यदि किसी प्रकार का अंकुश लगाकर जैन संघ को एकता के सूत्र में प्राबद्ध नहीं किया गया तो इसके दूरगामी परिणाम बड़े भयावह सिद्ध होंगे इस आशंका से चिन्तित होकर विभिन्न परम्पराओं के नायकों ने भाव परम्परा और अनेक गणों, गच्छों, सम्प्रदायों एवं धर्म संघों में विभक्त हुई द्रव्य परम्पराओं के बीच समन्वय स्थापित करने का प्रयास किया।
महानिशीथ की रचना किसके द्वारा और किस समय में की गई इस सम्बन्ध में तो, प्रमाणाभाव में निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता, परन्तु महानिशीथ में ही विद्यमान उल्लेख से यह निश्चित रूपेण कहा जा सकता है कि विक्रम
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org